IMC. फुल फॉर्म, ‘इंडियन मोबाइल कांग्रेस’. मोबाइल और डिजिटल टेक्नॉलजी से जुड़ा एशिया का सबसे बड़ा मंच. 2017 में स्थापित हुआ. तब से लेकर आज तक ये हर साल तीन दिन का अंतरराष्ट्रीय कॉन्फ़्रेंस करता है. यूं 2020 में 8 दिसंबर से 10 दिसंबर तक IMC की तीसरी कॉन्फ्रेंस हुई. इस वर्चुअल सम्मेलन में 5G और इसको लेकर भारत की तैयारी का मुद्दा ही छाया रहा.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए कहा,
5G समय पर लॉन्च हो सके इसे सुनिश्चित करने के लिए हमें एक साथ काम करने की आवश्यकता है. जिससे हम भविष्य की ओर छलांग लगा सकें और लाखों भारतीयों को सशक्त बना सकें.
नरेंद्र मोदी ने 5G के अलावा इलेक्ट्रॉनिक कूड़े को मैनेज करने, गांवों को फ़ाइबर ऑप्टिक्स से कनेक्ट करने, महमारी के समय मोबाइल टेक्नॉलजी से मिली सहायता और भारत को मोबाइल हार्डवेयर का हब बनाने के संबंध में भी बातें कीं.

लेकिन हम अभी अपनी स्टोरी का फ़ोकस 5G पर ही रखेंगे.
# भारत में कब तक आएगा 5G
तो, IMC में प्रधानमंत्री के संबोधन के बाद बारी आई भारत में 5G के सबसे बड़े स्टेकहोल्डर्स की. मतलब जियो और एयरटेल की. जहां जियो का कहना था कि अगले साल की दूसरी छमाही तक 5G तकनीक आ जाएगी, वहीं एयरटेल ने इससे अलग बात की. उसका कहना था कि अभी 5G को भारत में आने में वक़्त लगेगा.
कॉन्फ़्रेंस के पहले दिन जियो और रिलायंस के मालिक मुकेश अंबानी ने बताया,
भारत आज दुनिया के सर्वश्रेष्ठ डिजिटली कनेक्टेड देशों में से एक है. इस लीड को बनाए रखने के लिए 5G के शुरुआती रोलआउट (लॉन्च) में तेजी लानी होगी. 5G को सस्ता और सर्वसुलभ बनाना होगा. इसके लिए लिए पॉलिसी स्टेप्स लेने की आवश्यकता है. मैं आपको विश्वास दिलाता हूं कि जियो, 2021 की दूसरी छमाही तक, भारत में 5G क्रांति का नेतृत्व करने लगेगा.
दूसरी ओर एयरटेल के चेयरपर्सन सुनील मित्तल को ऐसा ज़ल्द होते नहीं दिखता. उनका कहना था,
डॉमेस्टिक टेलिकॉम मार्केट को 5G सेवाओं के लिए पर्याप्त परिपक्व होने में अभी दो से तीन साल लग सकते हैं.

वैसे मुकेश अंबानी पहले भी 5G के बारे में आश्वस्त लहजे में बात कर चुके हैं. 15 जुलाई, 2020 को अपनी 43वीं AGR (एनुअल जर्नल मीट) में उन्होंने कहा था,
जियो ने 5G सॉल्यूशन्स का बिलकुल स्क्रैच से निर्माण और विकास कर लिया है. इससे भारत में वर्ल्ड-क्लास 5G सर्विस लॉन्च करने में मदद मिलेगी. वो भी भारत में विकसित तकनीकों और समाधानों के द्वारा. और जैसे ही 5G स्पैक्ट्रम उपलब्ध होते हैं ये ‘मेड इन इंडिया’ 5G तकनीक ट्रायल के लिए तैयार हो जाएगी. उसके अगले साल तक आम लोगों तक भी पहुंच जाएगी.
NEWSALERT Ambani announces Jio developing a complete 5G solution from scratch; trials to be launched as soon as 5G spectrum is available
— Press Trust of India (@PTI_News) July 15, 2020
हमारे ‘ऑल-IP नेटवर्क’ के चलते हमें 4G से 5G पर अपग्रेड करने में भी दिक्कत नहीं होनी. जैसे ही जियो के 5G सॉल्यूशन्स राष्ट्रीय स्तर पर सुदृढ़ हो जाएंगे, हम इन 5G सॉल्यूशन को दुनियाभर के अन्य टेलीकॉम ऑपरेटर्स को निर्यात करने की स्थिति में होंगे. मैं जियो का ये ‘5G सॉल्यूशन’, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अत्यधिक प्रेरक दृष्टिकोण, ‘आत्मनिर्भर भारत’ को समर्पित करता हूं.
IMC के दौरान भी उन्होंने 5G को ‘आत्मनिर्भर भारत’ से जोड़कर, नरेंद्र मोदी को संबोधित करते हुए कहा,
ये (जियो द्वारा दी जाने वाली 5G सर्विसेज़) अपने देश में ही विकसित नेटवर्क, हार्डवेयर और प्रौद्योगिकी द्वारा संचालित होगी. JIO की 5G सर्विसेज़, ‘आत्मनिर्भर भारत’ की आपकी (प्रधानमंत्री की) प्रेरक दृष्टि की साक्षी बनेगी.

इस मामले में भी एयरटेल की राय अलहदा थी. एयरटेल के सीईओ गोपाल विट्ठल ने इंडिजिनस टेक्नॉलजी (स्वदेशी तकनीक) को 5G के लिए एक ‘अस्तित्ववादी खतरा’ कहा. उनके अनुसार ये अप्रोच भारत को वैश्विक पारिस्थितिकी तंत्र (ग्लोबल इकोलॉजिकल सिस्टम) से बाहर कर सकती है.
आसान भाषा में गोपाल विट्ठल की बात का अर्थ हुआ-
अगर हम ‘स्वदेशी’ और ‘आत्मनिर्भर’ के पीछे पड़े रहे तो 5G के मामले में बाक़ी देशों से इतना पिछड़ जाएंगे कि इस रेस में फ़र्स्ट, सेकंड आना दूर रेस कंप्लीट करना ही हमारे लिए मुश्किल हो जाएगा.
तो इंडस्ट्री के दिग्गजों के बयानों से पता चलता है (या यूं कहें कि कंफ़्यूजन हो जाता है) कि भारत में 5G कब तक आएगा. हालांकि बहुत लेट हो, तो भी (एयरटेल वाली बात को सही मान लें तो) भारत में इसकी आमद 2023-24 तक हो ही जाएगी.
# 5G है क्या बला-
अब ऊपर तक की स्टोरी पढ़कर मेरे-आपके जैसे लोगों का यही सवाल होगा कि ‘कोउ नृप होय, हमें का हानि?’ तो हमारे लिए है स्टोरी का दूसरा भाग. कि जिसको लेकर भारत के ‘सबसे बड़े-बड़े’ लोग पिले पड़े हैं, वो 5G आख़िर है क्या?
इसका उत्तर ढूंढ़ने और आगे की रिसर्च करने में हमारी सहायता की है हमारी साइंसकारी की ‘एक सदस्यीय’ टीम ने. यानी आयुष ने. आयुष की बाकी स्टोरीज़ आप यहां पर पढ़ सकते हैं और उनकी साइंसकारियां आप यहां पर देख सकते हैं.
# जनरेशन गैप-
5G में G का मतलब है जनरेशन यानी पीढ़ी. 80 के दशक में वायरलेस सेल्युलर टेक्नॉलजी की शुरुआत हुई. ये मोबाइल टेलीकम्यूनिकेशन की पहली पीढ़ी थी- 1G. हालांकि एक तार्किक बात ये है कि-
जैसे, जब तक द्वितीय विश्व युद्ध नहीं हुआ था, तब तक प्रथम विश्व युद्ध केवल ‘विश्व युद्ध’ था. ऐसे ही, जब तक 2G तकनीक नहीं आई तब तक 1G को 1G भी नहीं कहा जाता था.

बहरहाल, 1G टेक्नॉलजी, एनालॉग सिग्नल्स पर आधारित थी. 90 के दशक में 2G की एंट्री हुई. पहली जनरेशन के मुकाबले 2G ने एनालॉग नहीं, डिजिटल सिग्नल्स को अपना आधार बनाया. तुलना करनी हो तो जान लीजिए कि एनालॉग और डिजिटल सिग्नल्स के बीच वही अंतर है, जो ऑडियो कैसेट और म्यूज़िक सीडी में स्टोर्ड गीतों के फ़ॉर्मेट बीच. डिजिटल सिग्नल्स ने फोन सिग्नल्स को सुरक्षित बनाया. और अब फोन से SMS भी भेजे जा सकते थे.
कॉल और SMS के बाद आई इंटरनेट की बारी. इसी ज़रूरत को ध्यान में रखते हुए इक्कीसवीं सदी के साथ-साथ आया 3G. 3G ने हमें ठीक-ठाक स्पीड का इंटरनेट दिया. और फिर 4G ने इस इंटरनेट की स्पीड को इतना तेज़ किया कि बिना बफर किए हाई क्वालिटी वीडियो स्ट्रीम की जा सकती थी.
और अब अंततः हम 5 G तक आ पहुंचे हैं. जिसे बहुत बड़ा गेम चेंजर बताया जा रहा है.
# क्या है 5G में-
एक शब्द में कहें तो 5G मतलब तेज़ इंटरनेट स्पीड. 4G के मुलाबले क़रीब 100 गुना तेज़. और जब वायरलेस इंटरनेट तेज़ हो जाएगा तो सिर्फ़ यूट्यूब या नेटफ़्लिक्स पर वीडियो देखने तक ही सीमित नहीं रहेंगी चीज़ें. ऑटोनॉमस व्हिकल्स, वर्चुअल रियल्टी और इंटरनेट ऑफ़ थिंग्स जैसी चीज़ें भी आम होने लगेंगी. ये सभी तकनीकें तैयार हुई पड़ी हैं या अपने अंतिम चरण में हैं, यानी सज-धज कर अपने पिया या अपनी प्रेयसी, 5G का इंतज़ार कर रही हैं.
अब आप पूछेंगे कि जियो, एयरटेल से लेकर दुनिया भर की सर्विस प्रोवाइडिंग कंपनियां और इस तकनीक से चलने वाले मोबाइल हेडसेट और बाकी गेज़ेट्स भी मार्केट में आने में कोविड वैक्सीन सा समय क्यूं लगा रहे हैं?
उत्तर है वो तकनीक या तकनीकें, जिसके चलते ये टास्क बहुत पेचीदा है. इन्हीं पेचीदगियों के चलते तो 5G इतनी भयंकर स्पीड देने वाला है.
चलिए फिर, 5G में इस्तेमाल होने वाली टेक्नॉलजी के बारे में आसान भाषा में समझें.

# हाई फ्रीक्वेंसी रेडियो वेव्स या मिलिमीटर वेव्स-
ये जो कंकड़ मारने से हलचल मचती है पानी में, शास्त्रों में इसे ही तरंग या वेव कहा गया है. ये तरंगे पत्थर मारने वाले स्थान में काफी घनी होती हैं, वहीं जितनी ये इंपेक्ट वाली जगह से दूर होती जाती हैं इनका घना-पन कम, और कम होता रहता है. और अंत में ये समाप्त हो जाती हैं. इस घनेपन को ही ‘आवृति’ या ‘फ्रीक्वेंसी’ कहते हैं और दो उभारों/शिखरों के बीच की दूरी को तरंग-दैर्ध्य या वेवलेंथ. हम कहते हैं न कि ‘मैं तो उसके घर फ्रीक्वेंटली जाते रहता हूं’, बस वैसे ही. फ्रीक्वेंसी को नापने की यूनिट को हर्ट्ज़ कहते हैं. एक हर्ट्ज़ मतलब एक सेकंड में एक वेव साइकिल निकल जाना. इसी तरह दो हर्ट्ज़ मतलब एक सेकंड में दो वेव साइकिल निकल जाना.
तो लहरों के घनेपन को इस तरह भी कहा जा सकता है कि –
लहर फेंके गए पत्थर से जितनी दूर जाती है उनकी आवृति या फ्रिक्वेंसी घटती रहती है और अंत में शून्य हो जाती है.
अब गौर कीजिए कि जहां पर आपने पत्थर मारा वहां पर सबसे ज़्यादा एनर्जी थी लेकिन दूर होते-होते वो घटती चली गई. मतलब ये हुआ कि ‘आवृति’ घटी तो ‘एनर्जी’ घटी. तो,
जब कभी कोई आपसे कहे कि इस वेव की फ्रीक्वेंसी ज़्यादा है तो जान लो कि वो कहना चाह रहा है कि इस वेव में ज़्यादा ताकत, ऊर्जा या एनर्जी है. या फिर फ्रीक्वेंसी नापने वाली यूनिट से किसी वेव की एनर्जी भी पता लग सकती है. यूं ‘हर्ट्ज़’ जितना ज़्यादा उतनी ज़्यादा किसी वेव की एनर्जी.
ये तो थीं मेकेनिकल वेव जिनके लिए पानी या किसी और मटेरियल की ज़रूरत थी. लेकिन एक वेव ऐसी भी होती है जिसके लिए पानी तो क्या किसी भी चीज़ की ज़रूरत नहीं होती. यानी ये ‘कुछ नहीं’ या ‘वैक्यूम’ में भी गति करती हैं. इन्हें इलेक्ट्रोमैग्नेटिक तरंगे कहते हैं. हिंदी में विद्युत-चुंबकीय. क्यूंकि इन तरंगों में विद्युत और चुंबकीय गुण होते हैं. इन तरंगों में भी फ्रीक्वेंसी और एनर्जी को आप मेकेनिकल वेव से रिलेट कर सकते हैं. यानी इलेक्ट्रोमैग्नेटिक वेव्ज़ में भी जैसे-जैसे फ्रीक्वेंसी बढ़ी एनर्जी बढ़ी.
हम इन इलेक्ट्रोमैग्नेटिक तरंगों के रेडिएशन्स से घिरे हुए हैं. लेकिन इनका बहुत छोटा हिस्सा महसूस कर पाते हैं. सूरज की रोशनी भी एक इलेक्ट्रोमैग्नेटिक तरंग है. ओवन में खाना गर्म करने वाली भी इलेक्ट्रोमैग्नेटिक तरंग है. एक्स रे मशीन में भी इलेक्ट्रोमैग्नेटिक तरंग है. एक इलेक्ट्रोमैग्नेटिक वेव कितनी भी फ्रीक्वेंसी की हो सकती है. वो हर्ट्ज़ में हो सकती है, किलो हर्ट्ज़, मेगा हर्ट्ज़ और गीगा हर्ट्ज़ में भी हो सकती है.
किलो, मेगा, गीगा, ये सब यूनिट प्रीफ़िक्स कहलाते हैं. बहुत बड़े-बड़े नंबर्स को हम एक सांस में बोल पाएं इसलिए हम इनका इस्तेमाल करते हैं. ये बताते हैं कि किसी नंबर के आगे कितने ज़ीरो लगे हैं. जैसे कि 1 किलो हर्ट्ज़ = 1,000 हर्ट्ज़ = 1 के आगे 3 ज़ीरो हर्ट्ज़. 1 मेगा हर्ट्ज़ = 1 के आगे 6 ज़ीरो हर्ट्ज़. 1 गीगा हर्ट्ज़ = 1 के आगे 9 ज़ीरो हर्ट्ज़. इसी तरह ये इससे बड़े होते जाते हैं. टेरा, पेटा, एग्ज़ा, ज़ीटा.

तो वैज्ञानिकों ने अलग-अलग फ्रीक्वेंसी की तरंगों को अलग-अलग ग्रुप्स में बांट दिया है. इसे इलेक्ट्रोमैग्नेटिक स्पेक्ट्रम कहते हैं. स्पेक्ट्रम यानी फ्रीक्वेंसी की पूरी रेंज. एक तरह की वर्णमाला. इस इलैक्ट्रोमैग्नेटिक स्पेक्ट्रम में 1 हर्ट्ज़ से 10^25(1 के आगे 25 ज़ीरो) हर्ट्ज़ तक की फ्रीक्वेंसीज़ को कवर किया गया है.
सबसे कम एनर्जी वाली इलेक्ट्रोमैग्नेटिक वेव्ज़ में आती हैं रेडियो वेव वाले स्पेक्ट्रम में. फिर माइक्रोवेव वाला स्पेक्ट्रम आता है, फिर जैसे-जैसे एनर्जी बढ़ती जाती है वैसे-वैसे वेव्स इन्फ्रारेड, हमको दिखने वाले रंग, अल्ट्रावॉयलट, एक्स रे और गामा रे में बदलती चली जाती हैं.
इसी स्पेक्ट्रम में हमारी विज़िबल लाइट की फ्रीक्वेंसी 405-790 टेराहर्ट्ज़ (1 आगे 12 ज़ीरो हर्ट्ज़) के बीच है. इससे बहुत ही कम फ्रीक्वेंसीज़ पर यानी 30 हर्ट्ज़ से 300 गीगाहर्ट्ज़(1 आगे 9 ज़ीरो हर्ट्ज़) की इलेक्ट्रोमैग्नेटिक वेव्स रेडियो वेव्स कहलाती हैं. और हमारा पूरा टेलीकम्युनिकेशन इन्हीं रेडियो वेव्स के सहारे चलता है. चूंकि रेडियो वेव्स का स्पेक्ट्रम भी बहुत बड़ा है. इसलिए इसे भी कई हिस्सों में बांटा गया है. लो फ्रीक्वेंसी रेडियो वेव्स, मीडियम फ्रीक्वेंसी रेडियो वेव्स और हाई फ्रीक्वेंसी रेडियो वेव्स. ये सब आपको ये बात बताने के लिए समझाया कि 5 G नेटवर्क के लिए हाई फ्रीक्वेंसी रेडियो वेव्स का इस्तेमाल होगा. जो कि पहले, यानी 4G, 3G में, नहीं होता था.
दिक्कत: हाई फ्रीक्वेंसी रेडियो वेव्स से डेटा ट्रांसफ़र की स्पीड बढ़ाई जा सकती है, इसका अंदाज़ा हमें पहले से ही था. लेकिन हाई-फ्रीक्वेंसी वेव्स के साथ एक दिक्कत है. और वो दिक्कत ये है कि ये वेव्स बहुत ज़्यादा दूर तक नहीं जा पातीं. इन्हें बिल्डिंग और रास्ते में दूसरी रुकावटें पार करने में बहुत दिक्कत होती है. कई बार बरसात टाइप की चीज़ें भी इन्हें आगे जाने से रोक सकती हैं.
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# स्मॉल सेल्स:
क्या आप जानते हैं कि सेलफोन को सेलफोन क्यूं कहते हैं? क्यूंकि इसके टावर इस तरह से लगे होते हैं कि नेटवर्क का एक सेल बनाते हैं. ठीक मधुमक्खी के छत्ते के आकर का. यूं हमारे फोन में नेटवर्क हमारे आसपास लगे सेल टावर्स से आता है. चूंकि 5G की मिलिमीटर वेव्स बहुत दूर तक नहीं जा सकतीं इसलिए हमें बहुत सारे छोटे-छोटे सेल टावर्स लगाने होंगे. ताकि पूरे गांव या शहर के नेटवर्क में कोई दिक्कत न आए. प्लान ये है कि जब 5G अपने पूरे विस्तार पर होगा, हमें लगभग 250 मीटर के दायरे में एक सेल टावर देखने को मिलेगा. ये टावर स्टेशन्स आकार में छोटे होंगे और इन्हें किसी भी बिल्डिंग के ऊपर या बिजली के खंभे में लगाया जा सकेगा.

दिक्कत: ये स्मॉल सेल्स एक साथ बहुत ज़्यादा लोगों को कम्यूनिकेशन दे सकने में समर्थ नहीं हो पाएंगे.
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# मैसिव मीमो (MIMO)-
MIMO का फुल फ़ॉर्म हुआ मल्टीपल इनपुट, मल्टीपल आउटपुट. ये एक मेथड है जिससे रेडियो एंटीना से एक साथ कई सिग्नल्स को मैनेज किया जाता है. इसका इस्तेमाल 4G में पहले से ही किया जाता रहा है. लेकिन 4G के सेल टावर में सिर्फ़ एक दर्जन एंटीना के पोर्ट्स होते हैं जबकि 5G के टावर में 100 के करीब एंटीना पोर्ट्स होंगे. इसका मतलब ये बेस स्टेशन(टावर) एक साथ बहुत ज़्यादा लोगों से सिग्नल ले और दे सकता है. इसी के लिए ये टेक्नॉलजी विकसित हुई है जिसका नाम है मैसिव मीमो. यानी 4G में इस्तेमाल होने वाले MIMO का बड़ा रूप.

दिक्कत: ज़्यादा एंटीना पोर्ट्स का मतलब है कि सिग्नल वेव्स एक दूसरे को डिस्टर्ब कर सकती हैं. इसे इंटरफेरेंस कहते हैं.
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# बीमफ़ॉर्मिंग-
पानी में कंकड़ डालने वाला एक्सपेरिमेंट फिर याद कीजिए. उस दौरान जो तरंग बनती है वो हर दिशा में बराबर जाती है. रेडियो एंटीना से जो इलैक्ट्रोमैग्नेटिक वेव निकलती है, उसके साथ भी लगभग यही होता है. अब मैसिव मीमो के साथ दिक्कत ये है कि उसमें बहुत सारे एंटीना हैं. इसलिए उसमें एक बड़ी चुनौती ये है कि उन सिग्नल्स को इन्टरफेरेंस से बचाया जाए. बीमफॉर्मिंग 5G सिग्नल्स के लिए एक ‘ट्रैफ़िक सिग्नलिंग सिस्टम’ सरीखा है है जो सिग्नल्स को सही रास्ता दिखाएगा.
बीमफॉर्मिंग का एक और फायदा ये है इससे जो मिलिमीटर वेव के कमज़ोर पड़ने का रिस्क लग रहा था, वो कम होगा. यूं, बीमफॉर्मिंग 5G सिग्नल्स के लिए लगभग वही करता है, जो मैग्नीफाइंग ग्लास सूर्य की किरणों के साथ करता है. ये एक जटिल टेक्नॉलजी है जो सिग्नल को सही दिशा में फोकस कर देती है.
दिक्कत: बेशक मैसिव मीमो और बीमफ़ॉर्मिंग जैसी तकनीकों से ढेरों लोग कम्यूनिकेट कर सकते हैं बिना एक दूसरे को परेशान किए. लेकिन दिक्कत ये कि या तो सिर्फ़ सुन सकते हैं या बोल सकते हैं. मैसेज रिसीव कर सकते हैं या सिर्फ़ भेज सकते हैं.मतलब रेडियो स्टेशन या श्रोता में से कोई एक ही बन सकते हैं. वन वे कम्यूनिकेशन.
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# फुल ड्यूपलेक्स-
ड्यूपलेक्स को रियल स्टेट में सुना होगा मतलब दो फ़्लोर. ड्यूप, या डबल से बना है ये शब्द. तो आपको कुछ-कुछ अंदाज़ा हो गया होगा कि फुल ड्यूपलेक्स तकनीक क्या करती होगी.

इस टेक्नॉलजी का इस्तेमाल सिग्नल का रास्ता डबल लेन करने के लिए है. आमतौर पर सेल टावर में ट्रांस-रिसीवर्स लगे होते हैं. और वो एक टाइम पर एक ही काम कर सकते हैं. मतलब या तो उनसे सिग्नल आ सकता है. या जा सकता है. लेकिन फुल ड्यूप्लेक्स एक ऐसी टेक्नॉलजी है जिससे एक ही टाइम पर सिग्नल भेजे भी जा सकते हैं. और उसी समय रिसीव भी किए जा सकते हैं.
# ‘डेटा’ जई ‘जियो’ रे. दिगड़ा ‘डेटा’ जई ‘जियो’ रे-
तो इन सारी तकनीकों के बारे में हमने आपको सिर्फ़ जानकरी भर दे दी है. ये कैसे काम करती है, ये भी बता देंगे तो आप जियो, एयरटेल से पहले 5G न बना लेंगे!
बिसाइड जोक, सच बात ये है कि कई चीज़ें बहुत ज़्यादा टेक्निकल हैं और कुछ चीज़ें अंडर डेवलपमेंट स्टेज में हैं. अगर डेवलप हो गई होतीं तो इस स्टोरी को आप जिस मोबाइल में पढ़ रहे हैं उसके नॉच में 4G के बदले 5G लिखा होता.

वैसे आपको पता ही होगा कि फिलहाल चीन 5G की रेस में काफी आगे है. इसे यूं भी कहा जा सकता है कि चीन डेटा की रेस में बहुत आगे है. इसलिए सबको चिंता है. क्यूंकि सारी चीज़ों में डेटा इन्वॉल्व्ड है. आने वाला जो समय है वो डेटा का ही है. इसलिए बार-बार कहा जाता है डेटा इज़ द न्यू ऑइल. जिसके पास डेटा का कंट्रोल वही सर्वशक्तिशाली है.
वीडियो देखें: साइंसकारी: चीन 5G नेटवर्क में इतना पैसा क्यों लगा रहा है?-