आज से 20 साल पहले एक प्रसिद्ध मूर्तिकार और बीएचयू कला संकाय के डीन बलवीर सिंह कट्ट गायब हो गए थे. अब तक उनका पता नहीं चल पाया है. वो भारत के प्रसिद्द कलाकारों में गिने जाते हैं. सदानंद शाही ने उनके गायब होने की घटना को अपनी इस कविता में बताया है. पढ़िए ‘संगतराश’.
जो बनारस की एक पवित्र सुबह अदृश्य हो जाने से पहले मौजूद था*
(बलवीर सिंह कट्ट और लतिका कट्ट के लिए.)
वह बनारस की एक पवित्र सुबह थी
ताज़ा फूलों की ख़ुशबू
गंगा की लहरों पर तैर रही थी
मन्दिर की घंटियों की आवाज़
पक्षियों की चहचहाहट से
होड़ ले रही थी
ऐसी ही एक सुबह का लुत्फ़ लेने
निकला था
संगतराश
संगतराश
जिसे पहाड़
सुंदरता की खान दिखते
संगतराश
जो लगातार बेचैन रहता
सुन्दरता के उत्खनन के लिए
संगतराश
जिसने लाल-हरे-नीले-पीले-सफ़ेद पत्थरों से
खोज निकाली थीं
अनगिनत जीवित आकृतियाँ
आज निकला था
सुब्ह-ए-बनारस का जायज़ा लेने
जब वह निकला
पेड़ों पर कलरव करते
पक्षियों के समूह ने
उसका इस्तक़बाल किया
बीच सड़क पर
अलसाये खड़े
पगुराते
बनारसी साढ़ों ने भी
बड़े अदब से
उसे रास्ता दे दिया
धरती के सबसे पुराने नागरिक पेड़
एक लाइन से खड़े होकर
उसे सलामी दे रहे थे
संगतराश के दिलोदिमाग़ में
कुलबुला रही थीं
असंख्य सौन्दर्य मूर्तियाँ
जो पहाड़ों के गर्भ में पड़ी-पड़ी
हज़ारों वर्षों से विकल हो रही थीं
सबको आश्वस्त करता
सधे कदमों से
चलता चला जा रहा था
संगतराश
उसे जुट जाना था
पथराई दुनिया को
सुंदर में बदल देने के काम में
उसे पत्थरों में जान डाल देनी थी
उस खूबसूरत सुबह के गर्भ में
घात लगाये बैठा था
एक अदृश्य ‘लेकिन’
संगतराश के इंतज़ार में
जिसे
सुंदर मात्र से चिढ़ थी
चिढ़ थी
सुंदरता के उजास से
इसके पहले कि संगतराश लौटता
उसे दबोच लिया नृशंस लेकिन ने
उस सुबह
किसी ने नहीं देखा
कि धरती फटी
और संग तराश उसमें समा गया
उस सुबह
किसी ने नहीं देखा
गंगा की लहरों को आते
और संगतराश को
अपने साथ ले जाते
किसी चील कौवे तक ने नहीं की
उसकी शिनाख्त
उसे सूरज खा गया था
या हवाएँ उड़ा ले गयीं थीं
किसी को कुछ भी नहीं पता था
इधर ख़ालिश बनारसी गपोड़िए थे
जिनका जन्म ही
बिना कुछ जाने
चरम सत्य बोलने के लिए हुआ था
वे रचते रहे कहानियाँ
कि संग तराश ऐसा था
वे रचते रहे क़िस्से
कि संग तराश वैसा था
इस ऐसा और वैसा के बीच
एक जीता जागता आदमी
जो संग तराश था
ग़ायब हो गया
सौन्दर्य का सर्जक अदृश्य हो गया था
और
संस्थाएँ चलती रहीं
अपनी लय में
शहर चलता रहा
अपनी लय में
लोग बाग चलते रहे
अपनी लय में
साज़िशें चलती रहीं
अख़बार निकलते रहे
और पढ़े जाते रहे
मंदिरों में बजती रहीं घंटियाँ
बजते रहे शंख
मस्जिदों से आती रहीं
अजान की आवाज़ें
गुरुद्वारों में चलती रही
अरदास
सहकर्मी लौट गये थे
अपने काम पर
सुबह वैसे ही हो रही थी-
जैसे होती थी
शाम वैसे ही हो रही थी
जैसे होती थी
अपने घोड़ों की उदासी के बावजूद
सूरज का रथ चलता रहा
ज्यों का त्यों
पक्षी उदास हो गये थे
साढ़ों के माथे पर
पड़ गया था बल
पेड़ पहले से ज़्यादा
गमगीन हो गये थे
आँसू की तरह
बहे जा रही थी गंगा
उस सुबह को हुए
इतने दिन बीत गये
जो किसी भी शाम से
ज़्यादा काली थी
किसी भी ख़ौफ़ से ज़्यादा
ख़ौफ़नाक
आज भी
हवाओं में गूंजता रहता है
संगतराश का नाम
जिसे सुनते हैं
इंतज़ार में खड़े पहाड़
पत्थरों की आँखों से
बरबस
ढुलक जाते हैं आँसू…
इस तरह
एक संग तराश
जो बनारस की एक पवित्र सुबह
अदृश्य हो जाने से पहले
मौजूद था
पत्थरों की दुनिया में
किंवदंती बन गया.
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