मई 1999. करगिल युद्ध शुरू हो चुका था. पाकिस्तान के घुसपैठियों ने भारत की कई जगहों पर कब्ज़ा कर लिया था. दोनों तरफ के सैनिक ज़ख़्मी हो रहे थे. शहीद हो रहे थे. भारत के सैनिक एक के बाद एक अपनी ज़मीन पर से पाकिस्तानियों को भगा रहे थे. देश में हर जगह करगिल युद्ध की ही बातें होती थीं. न्यूज़पेपर, मैगजीन, टीवी सबकुछ देशभक्ति के रंग से पटा पड़ा था. ये पहली बार था जब हमारी जनरेशन ने पूरे देश को एकसाथ मिलकर काम करते हुए देखा था.
गुंडों के लिए देशभक्ति रिहाई का आखिरी सहारा थी
जुलाई 1999 में मुख़्तार अंसारी ने कहा था. वो भी सीमा पर जाकर देश के लिए जंग में शामिल होना चाहता है. वो भी देश के लिए अपनी कुर्बानी देने को तैयार है. जैसे उसके चाचा ब्रिगेडियर उस्मान अंसारी ने सन 1948 के युद्ध में किया था. उस्मान अंसारी अपने साथियों के साथ मिलकर श्रीनगर को पाकिस्तानी हमलावरों के हाथों में जाने से बचाया था. लेकिन एक समस्या आ गई. मुख़्तार अंसारी उस समय तक उत्तर प्रदेश का एक खतरनाक गुंडा बन चुका था. उस पर किडनैपिंग और मर्डर के कई केस चल रहे थे. वो जेल में बंद था. करगिल युद्ध के समय उसके अन्दर का देशभक्त एकदम से जाग गया. बोला, हमको भी सीमा पर जाना है. हमको भी देश की सेवा करनी है. लेकिन कोर्ट ने उसको ना तो जमानत दी. ना ही सीमा पर जाने की परमिशन दी.

क्रेडिट: PTI
मुख़्तार अंसारी जैसे बहुत सारे गुंडे उस दौर में देश के लिए कुर्बान होने को उतावले हो गए थे. बहुत सारे नामी गुंडे, जो उस वक्त जेल में बंद थे. उन्होंने युद्ध में शामिल होने के लिए जमानत की अर्जी लगा दी थी. गुंडे-बदमाशों को देशभक्ति अपनी रिहाई का आखिरी सहारा दिख रही थी. लेकिन गनीमत है कि किसी को भी परमिशन नहीं मिली थी.
बच्चे पॉकेटमनी बचा रहे थे, सेक्स वर्कर्स अपने सेविंग एकाउंट्स तोड़ रही थीं
उस दौर में शायद ही कोई बच्चा रहा होगा, जिसने बड़े होकर आर्मी में जाने का सपना नहीं देखा होगा. सेना में जाने वालों की अर्जियां करीब दस गुना बढ़ गई थीं. हम गालों पर तिरंगा लगाए घूमते थे. स्कूल और दुकानों में देशभक्ति गाने बजते रहते थे. किसी न किसी तरह से हर कोई करगिल की लड़ाई में देश के लिए कुछ करना चाहता था. जिससे जो बन पड़ रहा था. लोग कर रहे थे. लोगों ने अपनी एक दिन की सैलरी दी थी. हम लोगों ने स्कूल में अनाज जमा करके सीमा पर भेजा था. स्कूलों में कलेक्शन बॉक्स बनवाए गए थे. कई स्टूडेंट्स ने अपनी पॉकेट मनी के पैसे बचाने शुरू कर दिए थे. बच्चे वीडियो गेम खेलना छोड़ कर वो पैसे प्राइम मिनिस्टर राहत कोष में जमा करवाने के लिए भेज रहे थे.

दिल्ली के जीबी रोड पर रहने वाली बहुत सारी सेक्स वर्कर्स ने अपनी कमाई का एक बड़ा हिस्सा प्राइम मिनिस्टर राहत कोष में जमा करवा दिया था. वहां रहने वाली एक सेक्स वर्कर का कहना था, ‘भले ही समाज हमको अपने से अलग मानता है, पर विधवाओं का दर्द हम समझ सकते हैं. युद्ध में जब बहुत सारे जवान शहीद हो जाएंगे. उनकी बीवियों की हालत बहुत खराब हो जाएगी. उनकी मदद कौन करेगा? इसीलिए हम अपने पैसे उनके लिए जमा करवा रहे हैं.’
जिन रास्तों से सेना की गाड़ियां गुज़रती थीं. लोग उनके लिए खाना, कपड़े और ज़रूरी चीज़ें लेकर पहुंच जाते थे. अपनी हिफाज़त के लिए सैनिकों को थैंक्यू कहने का ये लोगों का तरीका था.

दिल्ली की एस्सार फ़ोन कंपनी ने घायल सैनिकों को उनके घरवालों से बात करने के लिए सेना के हॉस्पिटलों में सेल फ़ोन दे दिए थे. कोक ने घायल और अपंग हुए सैनिकों और शहीद हुए सैनिकों के परिवार वालों को अपनी बॉटलिंग यूनिट में नौकरियां देने की पेशकश की थी.
पर जो पैसे इकट्ठे हो रहे थे, वो जा कहां रहे थे
हर हफ्ते करीब 2000 करोड़ रुपयों की ज़रुरत थी. सैनिकों के इलाज, हथियार, इतनी ऊंचाई पर रहने और खाने का खर्च बहुत था. युद्ध के ख़त्म होते-होते करीब 54,461 करोड़ रुपए खर्च हो चुके थे.

युद्ध के दौरान पैसे लगातार आ रहे थे. बड़े-बड़े इंडस्ट्रियलिस्ट, बिज़नेसमेन, आम आदमी आगे बढ़कर पैसे दे रहे थे. लेकिन ज़रूरत के वक़्त सैनिकों तक कितना पैसा और कितनी सुविधाएं पहुंची. इसका कोई हिसाब नहीं था. सैनिकों की ज़रूरतें पूरी नहीं हो पा रही थीं. लोगों की देशभक्ति वाली भावना का फायदा उठाने वाले लोगों के लिए ये नया बिज़नस बन गया था. छोटी-छोटी दुकानें कुकुरमुत्ते की तरह हर जगह निकल आई थीं. उन पर पोस्टर लगे होते थे. सेना के लिए कपड़े, पैसे और अनाज यहां जमा करवाएं. देशभक्ति के नाम पर लोग पैसा जमा कर रहे थे. ये जाने बिना कि ये पैसा कहां और कैसे इस्तेमाल होगा. जगह-जगह पर ब्लड डोनेशन कैंप लगाए जा रहे थे. लोगों से कहा जा रहा था कि ये खून जवानों के काम आएगा. लेकिन सीमा पर सेना को इतने खून की ज़रूरत ही नहीं थी.
बिज़नेस वालों ने भी युद्ध को अपने फायदे के लिए खूब इस्तेमाल किया. टीवी और म्यूजिक सिस्टम बनाने वाली कंपनी बैरन इंटरनेशनल ने ऑफर निकाला था. अगर आप उनका एक टीवी या म्यूजिक सिस्टम खरीदेंगे. कंपनी 100 रुपए सेना को भेजेगी. इसी तरह के ऑफर उस वक़्त के लगभग हर ब्रांड ने निकाले थे.
फिर भी बहुत सारा पैसा, बेहिसाब इकट्ठा हुआ खून, अनाज और लोगों की मदद बर्बाद हो रही थी. लेफ्टिनेंट जेनरल और एडजुटेंट जेनरल एस.एस. ग्रेवाल ने खुद लोगों से कहा था, ‘जब देश के सामने इतनी बड़ी समस्या खड़ी है. सैनिकों को इज्ज़त और इतना सम्मान मिलता देखकर बहुत अच्छा लग रहा है. लेकिन ज़रूरत है कि सैनिकों और उनके परिवारों के लिए युद्ध के बाद की ज़िन्दगी बेहतर बनाने की. युद्ध के बाद विकलांग सैनिकों को नौकरियां दी जाएं, तो अच्छा होगा.’
कुछ को लगता था कि ये देशभक्ति भी सिर्फ ग्लैमर है
कुछ ऐसे भी लोग थे जो ज़रूरत से ज्यादा पसरी हुई देशभक्ति से खीझ भी गए थे. उनका मानना था कि हर साल करीब 1000 से ज्यादा सैनिक शहीद होते हैं. वो भी तब, जब युद्ध नहीं हो रहा होता. उस वक़्त तो उन सैनिकों पर कोई ध्यान नहीं देता. उस वक़्त तो उनके घरवालों को कोई नहीं पूछता. उस वक़्त अचानक से सबके अन्दर की देशभक्ति जाग गई थी.
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