आज की कहानी है उस देश की, जो फांसी की सज़ा देने में चीन के बाद दूसरे नंबर पर है. इस देश में सज़ा-ए-मौत की वजह कुछ भी हो सकती है. मसलन, दुश्मन देश के लिए जासूसी करने का इल्ज़ाम. या फिर 55 बरस के मुर्तज़ा जमाली जैसा केस. जिसे शराब पीने की वजह से फांसी चढ़ा दिया गया.
7 सालों में 22 बच्चों को फांसी
ये कहानी है उस देश की, जहां बच्चों और नाबालिगों को भी डेथ पैनल्टी दी जाती है. यहां 9 साल की लड़कियों को भी क़ानूनन सूली चढ़ाया जा सकता है. 2013 से अब तक यहां 22 बच्चों और नाबालिगों को फांसी की सज़ा मिली है. ये सज़ाएं किस तरह के आरोपों में मिलती हैं, ये समझने के लिए 17 साल की ज़ैनब सेकानवांद का केस सुनिए. ज़ैनब का पति उसपर बहुत ज़ुल्म करता था. एक दिन ख़ुद को बचाने की कोशिश में ज़ैनब के हाथों उसका क़त्ल हो गया. अदालत ने ज़ैनब की कम उम्र या उसके साथ होने वाली घरेलू हिंसा के आधार पर कोई रहमदिली नहीं दिखाई. उसे हत्यारा बताकर फांसी चढ़ा दिया.

जिस देश में फांसी इतनी आम है, वहां कुछ नया हुआ है. यहां तीन युवाओं को मिली सज़ा-ए-मौत पर हंगामा मच गया है. इतना हंगामा कि सरकार द्वारा चुप करवाए जाने के आदी लोगों ने सोशल मीडिया पर बग़ावत कर दी है. अकेले ट्विटर पर ही इन तीन युवाओं के समर्थन में 50 लाख से ज़्यादा ट्वीट हो गए. अगर आपको लगता है कि तानाशाही सिस्टम को ट्वीट्स से असर नहीं पड़ता, तो दोबारा सोचिए. इस कैंपेन के कारण यहां पब्लिक सेंटिमेंट्स के प्रति उदासीन सिस्टम को तीनों युवाओं की सज़ा मुल्तवी करनी पड़ी.
ये तीनों कौन हैं? इनके ऊपर क्या आरोप हैं? क्यों लोग इन तीनों को बचाने के लिए इतने हलकान हो रहे हैं?
आज आपको ये पूरा मामला विस्तार से बताएंगे. शुरुआत करते हैं इन तीनों के नाम से. इनके नाम हैं- सईद तामजिदी, अमीर हुसैन मोरादी और मुहम्मद रजाबी. सईद और अमीर, दोनों की उम्र है 26 बरस. रजाबी की उम्र 28 साल है. ये तीनों ईरान के रहने वाले हैं. इन तीनों पर आरोप है-
इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ ईरान से जंग छेड़ना.
सरकार के विरोध में सार्वजनिक संपत्ति की तोड़-फोड़ और आगजनी करना.
इन आरोपों का बैकग्राउंड जुड़ा है नवंबर 2019 के एक सरकारी फैसले से. हुआ ये कि ईरान में तब एक लीटर पेट्रोल की कीमत थी करीब 6 रुपया. इसे बढ़ाकर कर दिया गया 9 रुपया. 9 रुपये की ये कीमत शुरुआती 60 लीटर तेल के लिए थी. अगर आपने 60 लीटर से ऊपर पेट्रोल ख़र्च किया, तो एक लीटर तेल पड़ेगा 18 रुपये का. मतलब दोगुनी क़ीमत.
न्यूक्लियर प्रोग्राम के कारण ईरान पर लगे आर्थिक प्रतिबंधों से आम आबादी पहले ही त्रस्त थी. ऐसे में जब पेट्रोल की कीमतें बढ़ीं, तो लोग सड़कों पर उतर आए. राजधानी तेहरान समेत करीब डेढ़ दर्जन शहरों में प्रोटेस्ट शुरू हो गया. प्रोटेस्ट शुरू होने के 72 घंटों के भीतर महंगाई विरोधी ये आंदोलन सरकार विरोधी प्रदर्शनों में तब्दील हो गया. लोग सरकार से इस्तीफ़ा मांगने लगे.

नवंबर 2019 के प्रदर्शनों पर सरकार ने क्या ऐक्शन लिया?
उसने कहा, ये दुश्मनों की साज़िश है. प्रदर्शनकारियों को गोली मारने का आदेश जारी हुआ. सिक्यॉरिटी फोर्सेज़ निहत्थे प्रदर्शनकारियों को घेरकर उनपर अंधाधुंध गोली चलाने लगी. ईरानी सरकार पहले भी ज़ोर-ज़बरदस्ती के सहारे जनता के विरोध को कुचलती आई थी. लेकिन इस बार सरकारी दमन ने पहले के सारे रेकॉर्ड तोड़ दिए. 15 नवंबर से 18 नवंबर के बीच ही करीब हज़ार प्रदर्शनकारी मार डाले गए. दो हज़ार से ज़्यादा प्रोटेस्टर्स जख़्मी हुए. करीब 10 हज़ार लोग अरेस्ट कर लिए गए.
इन्हीं गिरफ़्तार किए गए लोगों में शामिल थे सईद तामजिदी, अमीर हुसैन मोरादी और मुहम्मद रजाबी. वो तीन युवा, जिनका ज़िक्र एपिसोड की शुरुआत में किया था हमने. क्या हुआ इन तीनों के साथ? इनपर मुकदमा चला. न वकील, न फेयर ट्रायल. पुलिस ने किस तरह इन तीनों का कन्फेशन लिया, ये बताने के लिए ऐमनेस्टी इंटरनैशनल की रिपोर्ट का एक हिस्सा पढ़कर सुनाता हूं आपको-
ईरानी पुलिस ने हिरासत में रखकर इन्हें ख़ूब पीटा. बिजली की नंगी तारों से इन्हें झटका दिया. सिर के बल उल्टा लटकाकर इनसे इनका कथित जुर्म कबूल करवाया. प्रॉसिक्यूशन ने इसी क़बूलनामे को सबूत बनाकर अदालत में पेश किया. कोर्ट ने इस सबूत को मंज़ूर किया. और इसी कथित सबूत के आधार पर 24 जनवरी, 2020 को कोर्ट ने सुनाया फैसला. कहा, अल्लाह से अदावत के दोषी पाए गए इन तीन युवाओं को मौत की सज़ा दी जाती है.

इसके बाद क्या हुआ?
इन तीनों प्रदर्शनकारियों ने ऊपरी अदालत में अपील की. तीनों ने कोर्ट को बताया कि पुलिस ने आतंक के सहारे उनसे झूठा कबूलनामा लिया. इस याचिका पर कोर्ट ने क्या किया? उसने इस अपील को खारिज़ कर दिया. 24 जून को फैसला सुनाते हुए कोर्ट ने तीनों को मिली मौत की सज़ा बरकरार रखी.
कोर्ट के इस फैसले के बाद ही ईरान की जनता, ख़ासतौर पर इसके युवा सोशल मीडिया पर सुगबुगाने लगे. जुलाई की शुरुआत में आकर इस सुगबुगाहट ने ज़ोर पकड़ा. कैसे? ये बात है 3 जुलाई की. ईरान के तीन वकीलों ने इंस्टाग्राम पर एक पोस्ट डाली. इन तीनों वकीलों के नाम हैं- मुस्तफ़ा निली, बाबक पकनिया और हुसैन ताज. ये वही तीन वकील हैं, जो उन तीन युवाओं का केस लड़ रहे हैं. अपनी इंस्टाग्राम पोस्ट में इन तीनों वकीलों ने लिखा कि अदालती फैसला तो दूर, उन्हें आज तक इस केस की चार्जशीट तक देखने को नहीं मिली. न ही अपने क्लाइंट्स की तरफ से डिफेंस पेश करने का ही मौका मिला उन्हें.
इस पोस्ट ने ईरान में बहस शुरू कर दी. लोग कहने लगे, ये तो अदालती प्रक्रिया के नाम पर तमाशा है. लोगों ने आख़िरी उम्मीद लगाई सुप्रीम कोर्ट से. यहां भी पुनर्विचार अपील दायर हुई. मगर 14 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट ने भी ये अपील खारिज़ कर दी.

सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स को बनाया हथियार
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद ईरान में लोग भड़क उठे. इंस्टाग्राम, ट्विटर और टेलिग्राम जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स उन तीन युवाओं के सपोर्ट से पट गए. अब यहां एक दिलचस्प फैक्ट बताते हैं आपको. ईरान में टेलिग्राम, यूट्यूब, फेसबुक और ट्विटर जैसे प्लेटफॉर्म्स बैन हैं. वहां आधिकारिक तौर पर बस दो ही लोग ट्विटर इस्तेमाल करते हैं. एक राष्ट्रपति हसन रूहानी. दूसरे, विदेश मंत्री जवाद ज़रीफ. इनके अलावा एक अनवैरिफाइड ट्विटर हैंडल सुप्रीम लीडर ख़ामेनेई से भी जुड़ा है. कहने का मतलब ये है कि दुनिया की टॉप 500 वेबसाइट्स में आधे से ज़्यादा ईरान में बैन हैं. इन्हें बैन क्यों किया गया? इसलिए किया गया ताकि लोगों की आवाज़ दुनिया तक न पहुंच सके.
मगर इस बैन के बावजूद ईरान के आम लोग ट्विटर तक पहुंच जाते हैं. कैसे? वर्चुअल प्राइवेट नेटवर्क्स, यानी VPN के सहारे. VPN की मदद से ईरानी जनता, ख़ासतौर पर यहां के युवा किसी दूसरे देश के सिक्योर कनेक्शन से जुड़कर ट्विटर जैसे प्लेटफॉर्म्स का इस्तेमाल करते हैं.

डू नॉट एक्ज़िक्यूट
उन तीन युवाओं के पक्ष में सपोर्ट जुटाने के लिए भी ईरानियों ने यही किया. 15 जुलाई की दोपहर ट्विटर पर हैशटैग चला डू नॉट एक्ज़िक्यूट. कुछ ही घंटों में ये ट्विटर पर नंबर वन ट्रेंड होने लगा. 15 जुलाई की आधी रात तक इस डू नॉट एक्ज़िक्यूट हैशटैग से 40 लाख के ऊपर ट्वीट हो गए. इस मसले ने जैसे ईरान में राष्ट्रीय एकता बना दी. आम और ख़ास, इस मसले पर सब साथ आ गए. यहां तक कि कई कट्टरपंथी इमाम भी इन तीनों युवाओं को सपोर्ट करने लगे. लोग लिखने लगे कि आज चुप रहे, तो कल हमारी बारी आएगी. लोगों को जैसे एकाएक ये इल्म हुआ कि अगर सरकार का विरोध करना सज़ा है, तो फिर कोई इस सज़ा से नहीं बच सकेगा. ये मुकदमा जनता के लिए अस्तित्व का सवाल बन गया.

और इस कैंपेन का असर क्या हुआ? असर ये हुआ कि ईरान के सुप्रीम कोर्ट ने फिलहाल इन तीनों युवाओं की सज़ा रोक दी है. 19 जुलाई को तीनों युवाओं के वकीलों का बयान आया. इसके मुताबिक, सुप्रीम कोर्ट दोबारा ट्रायल करवाने की अर्जी देखने को भी राज़ी हो गया है. ये वही सुप्रीम कोर्ट है, जिसने 14 जुलाई को ये अर्जी नामंज़ूर कर दी थी. एक हफ़्ते के भीतर कोर्ट के रुख में आया बदलाव सोशल मीडिया कैंपेन का नतीजा है.
अब सवाल उठता है कि क्या ईरान में सरकार विरोधी लहर केवल इस केस तक महदूद है? जवाब है, नहीं. पिछले 11 साल से यहां सरकार विरोधी प्रदर्शन काफी नियमित हो गए हैं.
इनमें से कुछ बड़े प्रदर्शनों को पॉइंट्स में जान लीजिए.
1. साल 2009: तत्कालीन राष्ट्रपति अहमदीनेजाद पर धांधली से चुनाव जीतने का आरोप, मास प्रोटेस्ट

2. 2017-2018: महंगाई के खिलाफ ऐंटी-गवर्नमेंट प्रोटेस्ट
3. नवंबर 2019: पेट्रोल की बढ़ी कीमतों के खिलाफ सरकार विरोधी प्रदर्शन
4. जनवरी 2020: यूक्रेनियन एयरलाइन्स फ्लाइट 752 को गिराने के बाद शुरू हुआ सरकार-विरोधी प्रदर्शन
क्या तीन युवाओं की सज़ा टलने से ईरान में सुलग रही सरकार-विरोधी लहर ख़त्म हो जाएगी? जानकार कहते हैं, ये लहर और उग्र हो सकती है. इसका संबंध राजनैतिक दमन के अलावा बदतर होती अर्थव्यवस्था से भी है. लोग नाराज़ हैं कि इतनी बदहाली में भी उनकी सरकार गाज़ा, यमन, लेबनन, सीरिया और इराक में युद्ध प्रायोजित करती है. ‘न गाज़ा, न लेबनन, हमें चाहिए बेहतर ईरान’ जैसे नारे यहां कई प्रदर्शनों का हिस्सा बन रहे हैं. सरकार इन मांगों की अनदेखी करती आई है. ऐसे में जानकारों का मानना है कि आने वाले दिनों में जनता का गुस्सा और उबलेगा. जनता की यही बग़ावत ईरानी सरकार की सबसे बड़ी चुनौती बनेगी.
विडियो- ईरान ने चाबहार रेल प्रोजेक्ट से भारत को क्यों डिरेल कर दिया?