17 मई सोमवार. छत्तीसगढ़ के सुकमा में एक CRPF कैंप के विरोध में प्रदर्शन हो रहा था. भीड़ पुलिस के विरोध में नारेबाजी कर रही थी. तभी गोलियां चलीं. गांववालों का आरोप है कि सुरक्षाबलों की ओर से चली गोलियों ने 9 लोगों की जान ले ली. 6 शव गांववाले ले गए, जबकि 3 CRPF कैंप में रह गए. वहीं पुलिस दावा करती है कि केवल 3 मौतें ही हुईं. पुलिस का ये भी कहना है कि भीड़ में नक्सली शामिल थे. ग्रामीण इससे इनकार करते हैं. ये घटना इस वक्त चर्चा में है. कई सवाल भी उठ रहे हैं. लेकिन ये ऐसा पहला मामला नहीं है, जहां सुरक्षाबलों की गोलियों से ग्रामीणों की मौत हुई हो. साल 2013 में भी एक ऐसा ही वाकया हुआ था. उस घटना को लेकर ऐसी बातें सामने आईं कि रूह कांप जाए.
छत्तीसगढ़ के पत्रकार हैं, आशुतोष भारद्वाज. इंडियन एक्सप्रेस में काम कर चुके हैं. तीन किताबें लिख चुके हैं. सबसे नई किताब का नाम है ‘द डेथ स्क्रिप्ट’. 19 मई 2021 को उन्होंने एक के बाद कई ट्वीट किए, और 19 मई 2013 को हुए उस वाकये के बारे में कई दावे किए. कहा कि ये बस्तर में पिछले एक दशक की सबसे खौफनाक घटना थी.
A thread about perhaps the most gruesome state's action in Bastar in a decade. A case that still awaits justice.
Bijapur.
19 May 2013. Noon.
Eight bodies lying in open. Naked. Swollen. Killed 36 hrs before in police firing. The govt has already admitted they were not Naxals.— Ashutosh Bhardwaj (@ashubh) May 19, 2021
आशुतोष भारद्वाज ने ट्वीट में दावा किया कि,
“बीजापुर. 19 मई 2013. दोपहर का वक्त. 8 शव खुले में पड़े थे. बिना कपड़ों के. फूले हुए. ये सभी 36 घंटे पहले पुलिस फायरिंग में मारे गए थे. सरकार मान चुकी थी ये लोग नक्सल नहीं थे.”
अपने अगले ट्वीट में उन्होंने आरोप लगाया कि,
“शव परिवारवालों को पोस्टमॉर्टम के बाद ही दिए जा सकते थे. इसलिए बीच जंगल में शवों को खोल दिया गया. ये बिल्कुल गैरकानूनी था. सरकारी डॉक्टरों ने उन शवों को छुआ तक नहीं. उनके रिश्तेदारों से ही कह दिया गया कि काटकर शवों को खोलें और घाव देखें. ये अमानवीय था.”
The bodies can be handed over to relatives only after postmortem.
So the bodies are sliced open in the middle of the jungle.
Absolutely illegal this.Govt doctors don’t even touch the bodies, ask relatives to cut them open and look for the wound.
Absolutely inhuman this.— Ashutosh Bhardwaj (@ashubh) May 19, 2021
उन्होंने दावा करते हुए आगे लिखा-
“एक डॉक्टर भी वहां थे, जो अब बीजापुर के सीएमओ हैं. अचानक उन्हें महसूस हुआ कि गांववालों को ब्लेड बदलना चाहिए. लेकिन वहां 8 शवों के पोस्टमॉर्टम के लिए केवल एक जोड़ी ग्लब्स थे और दो ब्लेड. CRPF के जवान असॉल्ट रायफल्स के साथ पहरेदारी कर रहे थे. यहां पोस्टमॉर्टम को लेकर सुप्रीम कोर्ट की गाइडलाइंस और शवों का सम्मान, दोनों की धज्जियां उड़ाई जा रही थीं.”
A doctor (now Bijapur CMO) suddenly feels that the villager should change the blade. But there’s only one pair of gloves, & two blades for 8 bodies. CRPF cops with assault rifles holding the guard. Every SC guideline of a postmortem, and the dignity of the deceased, violated. + pic.twitter.com/WqrugejVfN — Ashutosh Bhardwaj (@ashubh) May 19, 2021
भारद्वाज लिखते हैं,
“सरकारी कागजों पर रिश्तेदारों के साइन लेने के बाद उन्हें शव सौंप दिए गए. लेकिन आदिवासी घर नहीं गए, बल्कि उन्होंने गंगलौर थाने के लिए लंबी यात्रा शुरू कर दी. महिलाओं ने आदमियों को पीछे धकेल दिया और प्रदर्शन की कमान संभाल ली. जंगल, भयंकर बदबू मार रहा था, और रो भी रहा था.”
The bodies are then handed over to the relatives after receiving their thumb impression on a govt paper.
But the adivasis won’t go home.
Begins a long journey to Gangalur thana.Women push the men behind.
Women now lead the protest.The forest is stinking — and wailing.
— Ashutosh Bhardwaj (@ashubh) May 19, 2021
“महिलाओं ने शवों को थाने के सामने रख दिया. वो अपनी छाती पीटने लगीं. बर्तन और पत्थर फेंकने लगीं. आदमी चाहते थे कि वो वापस चलें. शवों को दफना दें, लेकिन महिलाएं झुकने को तैयार नहीं थीं. मध्य भारत में विद्रोहों की रिपोर्टिंग के दौरान मैंने पहली बार आदिवासी महिलाओं को इतना उग्र देखा था.”
Women place these bodies before the thana. They beat their chests. They throw utensils and stones. Men want them to return, bury the dead. But they won’t budge. Of all the years covering the insurgency in central India, first instance that I see adivasi women so furious. + pic.twitter.com/CEFCRy7s6K — Ashutosh Bhardwaj (@ashubh) May 19, 2021
आशुतोष लिखते हैं कि
कई घंटों के बाद महिलाएं वापस लौट गईं. चिताएं इंतजार कर रही थीं. हाईकोर्ट के रिटायर्ड जज की अध्यक्षता में एक जांच बैठी, जो अभी तक रिपोर्ट सबमिट नहीं कर पाई है. कांग्रेस तब विपक्ष में थी. तब इस मुद्दे को आक्रामकता के साथ उठाती थी, लेकिन सत्ता में आने के बाद इसे भूल गई. मरे हुए लोग अभी भी न्याय के इंतजार में हैं.”
After several hrs the women eventually return.
The pyres are waiting.
An enquiry is set up under a Retd HC judge, yet to submit a report.
Congress, then in opposition, aggressively takes up the issue, but forgets after coming to power.
The deceased still awaits justice.
— Ashutosh Bhardwaj (@ashubh) May 19, 2021
क्या था 2013 का वो मामला?
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक, मई 2013 में आदिवासी औरतें गंगलौर पुलिस स्टेशन और नजदीक बने CRPF कैंप पर चिल्लाते हुए पत्थर फेंक रही थीं. आदमी उन्हें शांत करने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन वो नारे लगाते हुए पत्थर फेंके जा रही थीं. उन्हें केवल गोंडी और हल्बी भाषा आती थी. वो जैसे तैसे ‘वापस जाओ-वापस जाओ’ चिल्ला रही थीं. कह रही थीं कि हिम्मत है तो हमें अभी मार डालो. आदिवासियों को मारना बंद करो.
इसी दौरान गोलियां चलीं और लोग मारे गए. मरने वालों में दो पिता और दो पुत्र भी थे. करम जोगा और उसका बेटा बदरू (13 साल), करम पांडु और उसका बेटा गुड्डू (14 साल). मृतकों में एक और नाबालिग लड़का था. पुनेम लेखू (15 साल). इन लोगों की परेशानी मौत के बाद भी खत्म नहीं हुई. तपती धूप में शवों को खुले में डाल दिया गया. शवों से बदबू आने लगी. तब पोस्टमॉर्टम हुआ, जो मृतकों के परिजनों से ही कराया गया.
ऐसे आरोप हैं कि CRPF जवानों की मौजूदगी में अपना मुंह ढके हुए डॉक्टर ने कहा- जरा पेट पर चीरा लगा. एक आदमी सुकलू सामने आया और नंगे शरीर पर कट लगाने लगा. शव गुब्बारे जैसे हो चुके थे. डॉक्टर बीआर पुजारी ने अपने सहयोगियों से पूछा, क्या तुम्हारे पास नया ब्लेड है? लेकिन वहां केवल 2 ब्लेड थे. सुकलू ने पूरी प्रोसेस के दौरान सर्जिकल ग्लब्स चेंज नहीं किए थे. खुले में पोस्टमॉर्टम नहीं होना चाहिए था. पुलिस की मौजूदगी में नहीं होना चाहिए था. वहां जो हो रहा था, गैरकानूनी था. ये बात डॉक्टर भी मान रहा था. पुलिस पर ये भी आरोप है कि वो जबरन शवों को ले आई थी. 24 घंटे बाद आदमियों ने पुलिसवालों को शव सौंपने के लिए मना लिया था. प्रशासन ने ट्रैक्टर का इंतजाम किया. लेकिन रास्ता खराब था. फिर शवों को कंधों पर रखकर दो घंटे का सफर तय करना पड़ा.
एडसमेटा में आखिर हुआ क्या था?
पुरानी मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, 17 मई 2013 की रात बीज पंडुम नाम का त्यौहार मनाने के लिए स्थानीय आदिवासी देवस्थान में जमा हुए थे. गांव में त्यौहार के चलते जश्न का मौहाल था लेकिन आगे क्या होने वाला है, ये किसी को कहां पता था. ग्रामीणों ने आरोप लगाया था कि पुलिस ने वहां पहुंचकर गोलियां चला दीं. वहीं सुरक्षाबलों का दावा है कि नक्सलियों ने उन पर हमला किया था. इस घटना में 3 बच्चों समेत 8 गांववालों की मौत हुई थी. कोबरा बटालियन का एक जवान भी मारा गया था. सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर मामले की सीबीआई जांच जारी है.
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