उसके पास कोई अवकाश नहीं, क्योंकि वह अब सिर्फ मसखरा नहीं!
स्पेनिश पेंटर एनरीक सिमोनेट वाई लोम्बोर्दो ने ये पेंटिंग 19वीं सदी के आखिरी साल में बनाई थी. पेंटिंग में प्रोफेसर-सा दिख रहा एक बूढ़ा शख्स औरत की लाश की चीर-फाड़ कर रहा है. उसके दाएं हाथ में एक छुरी है और बाएं में वह दिल है जो उसने अभी उस शरीर से निकाला है. ये शख्स उस दिल को प्रशंसा की नजरों से देख रहा है. इस अंग के वजन और खून के रिसाव में वो खत्म होते जीवन का कोई आखिरी सिरा खोज पा रहा हो. यह ऑब्जेक्टिव और सब्जेक्टिव का विमर्श है. सभ्य और जंगलीपन का. पौरुष और स्त्रीत्व का. चिंताजनक से कहीं अधिक. इस पेंटिंग को शुरू में 'शी हैड अ हार्ट' कहा गया. बाद में इसे 'एनाटॉमी ऑफ हार्ट' नाम मिला.
‘नाम भिखारी काम भिखारी रूप भिखारी मोर
हाट पलानि मकान भिखारी चहूं दिसि भइल शोर’
यह कहने वाले भिखारी ठाकुर जहां सोचना खत्म करते हैं, वहां वह सोचना शुरू करता है. यह कहना एक भोजपुरी फिल्म के संवाद की तरह हो सकता है और वह एक खलनायक की तरह. यह खलनायकों से प्रभावित हो जाने का समय है, तब तो और भी जब वे बोलियों से बलात्कार कर रहे हों. ‘अब भिखारी होने में कुछ ठाठ नहीं है’ यह कहते हुए खलनायक शोर को संगीत और फूहड़ताओं को लोकगीतों में तब्दील कर देते हैं. ‘सगरी देहिया बलम के जगिरदारी भइल’ यह ज्ञात नहीं, लेकिन ‘बहुत दूर ले भइल नाम/ अब न करब नाच का काम’ यह भिखारी ठाकुर ने ही कहा है. ‘रहे के बाटे सबके बीच/ केहू केतनो होइ नीच’ ये पंक्तियां मोती बी. ए. की हैं.
एक शोध के मुताबिक हीरा डोम ने पहली दलित-कविता लिखी है— ‘अछूत की शिकायत’. कबीर और भारतेंदु से सब वाकिफ ही हैं. ‘अंगुरी में डंसले बिया नगिनिया/ हे ननदी दियरा जरा दे’ यह कहने वाले महेंदर मिसिर को भोजपुरी न जानने वाले भी जानते हैं. गोरख पांडेय का इंकलाबी काम भोजपुरी में हिंदी से कुछ कम नहीं है …और भी कई मालूम-नामालूम रचनाकार हुए हैं और हैं जो एक सृमद्ध और भरी-भरी भोजपुरी का होना जाहिर करते हैं. लेकिन कुछ लोग परंपरा से कुछ नहीं सीखते और कुछ लोग उसे ढोते रहते हैं. खलनायकों की अपनी व्यस्तताएं और अपने अकेलेपन हैं.
यों देखें तो कई मायनों में वह परंपरामुक्त है और कई मायनों में वह परंपरा ढो रहा है. वह गुजर गए वक्तों में यकीनन कोई संत रहा होगा— संभोग की तीव्र इच्छा से मुसलसल छटपटाता हुआ कोई संत. वह संत तनहाई में खलनायक हो जाया करता होगा. आखिर उसका भी मन करता होगा अधनंगी लड़कियों के साथ नाचने का. आखिरकार एक रोज पशेमां होकर वह पर्वतों से कहता होगा : ‘मुझे अवकाश दो…ओ…ओ…ओ… मैं झड़ रहा हूं…ऊं…ऊं…ऊं… मैं केवल थोड़ी-सी अवधि के लिए…ए…ए…ए भोजपुर जाना चाहता हूं…ऊं…ऊं…ऊं…’ लेकिन उसकी आवाज पर्वतों में ही कहीं खो जाती होगी और संत अंत तक बस संत बना रहता होगा. उसके पास ऐसा कोई आध्यात्मिक अवकाश या बनावट नहीं है. क्योंकि वह अब सिर्फ एक व्यक्ति नहीं है. क्योंकि वह अब सिर्फ एक मसखरा नहीं है. क्योंकि वह अब सिर्फ एक राजनेता नहीं है.
वह अब एक रूपक है— शीघ्रपतन, उपदंश और नपुंसकताओं की सांस्कृतिक इंडस्ट्री में. नोटबंदी में विकल हुई जनता अब उसके उपहास की पात्र है. वह जनता जो उसकी निर्माण सहायक थी, है और रहेगी. यहां आकर अध्यवसाय कुछ कमजोर पड़ता है और कल्पना का आश्रय पाकर यथार्थ अश्लील अर्थों में लौटता है. भिखारी ठाकुर कृत ‘बिदेसिया’ की संजय उपाध्याय निर्देशित प्रस्तुति देखने के बाद वह बहुत व्याकुल हो उठा था :
‘कासे कहूं मैं दरदिया हो रामा पिया परदेस गए
चिठियो न भेजे रामा निपट नदनवा
रात जैसे कारी नगनिया हो रामा पिया परदेस गए
सोलहो सिंगार करके अंगना में ठाड़ी
सिसके अटरिया कूके कोयलिया हो रामा
रात जैसे कारी नगनिया हो रामा पिया परदेस गए’
…
यह गीत गुनगुनाते हुए वह एक विह्वल मन:स्थिति में डेरे पर पहुंचा था और बगैर कुछ खाए-पीए ही सूत गया था. वह एक स्वप्न में था या स्वप्नदोष में कहना मुश्किल है, लेकिन आधी रात गुजर जाने पर वह एक खटके से जागा था. आंखें भीगी हुई थीं और वह एक हूक महसूस कर रहा था. वह अपना हाथ जांघिए के भीतर ले गया और एक सहलाहट और एक रगड़ के बीच उसने सोचा जनता को इस कदर रुलाना ठीक नहीं. सारी सत्ताएं यही एक प्रासंगिक और आसान काम ही तो करती आई हैं अब तक, ‘मैं ऐसा नहीं करूंगा.’
इस इलहाम के बाद उसने लिबलिबे द्रव से सने हाथ में कलम लेकर एक गीत रचा : ‘इकसठ बासठ करत बा.’ यह गीत अनंतर स्वर और संगीतबद्ध होकर बेहद लोकप्रिय हुआ. यह एक प्रक्रिया थी या एक रचना-प्रक्रिया इस पर मतभेद हो सकता है, लेकिन इस पर नहीं कि बाद इसके वह एक भाषा में एक स्थायी भांड बन गया. एक समृद्धता को विकृत होते हुए देखने में मजे ही मजे हैं. उसके काम के कुछ नमूने यहां देखिए :
— गोदिया में हमके लेलअ पिया, लेलअ पिया, लेलअ पिया.
— कुरती के टूटल बा बटमियां, घूमेली बाजार में मोहनिया.
— अरे बबुनी के शहर के लागल बा हवा, अउरे पढ़ावा.
— तेरी गरमी दूर करूंगा डर्मी कूल से.
— अइसन दिहलू पप्पी गलिया लाल होइ गइल.
— हाफ पैंटवाली से हमरा तअ देखते देखते लव होइ गइल.
…
अश्लीलता को चाहे कैसे भी परिभाषित या व्याख्यायित किया जाए, वह अश्लीलता की अनवरत साधना का शीर्षक है, और यह साधना अब इतनी सार्वजनिक है कि बहुत कम मूल्य पर इसे फुटपाथों और इंटरनेट पर बहुत सरलता से खरीदा और भोगा जा सकता है— कुछ मूल्यवंचित और कुछ परंपरामुक्त होकर.
वह जनपथ से जंतर-मंतर की ओर नहीं जाएगा.
वह संसद से अब सड़क की ओर नहीं जाएगा.
क्योंकि वह न हमलावर है न हरावल.
वह बस वह है.