जब से दुनियादारी की समझ आने लगी, लोगों को सिनेमा और क्रिकेट को पूजते देखा. इंडिया की कोई भी क्रिकेट सीरीज़ होती, सड़कें खाली मिलती. मार्केट में दुकान वालों को अपनी रोज़ी-रोटी भूल रेडियो के इर्द-गिर्द हुज़ूम बनाते देखा. अपने आसपास ऐसे लोगों को देखा, जो मैच के बीच पानी पीने के लिए भी नहीं उठते थे. कि कहीं इंडिया का कोई विकेट न गिर जाए. हमेशा ये सवाल रहता कि हम भारतीयों में क्रिकेट का इतना जुनून क्यों है, जबकि ये हमारा नैशनल स्पोर्ट भी नहीं. वजह थी हमारी पहली वर्ल्ड कप जीत, जिसे हममें से ज़्यादातर ने नहीं देखा. बस उसकी कहानियां सुनी हैं, फोटोज़ देखी हैं.

1983 में भारतीय क्रिकेट टीम की जीत की कहानी ऐसी थी, जो हर शख्स तक पहुंचनी ज़रूरी थी. उसी कहानी को कबीर खान ने बड़े परदे पर उतारा है. ’83’ नाम की फिल्म के रूप में. फिल्म कैसी है इस पर मैं बात नहीं करूंगा, उसके लिए आप हमारे साथी मुबारक का रिव्यू पढ़ ही लेंगे. मैं बात करूंगा फिल्म के उन पहलुओं की, जिन्होंने मेरे दिल के तार छुए. जिन्होंने फिल्म को मेरे लिए एक यादगार अनुभव बनाया.
#1. न चीखने वाली देशभक्ति
अगर डॉक्टर मुरली प्रसाद शर्मा आज की मेनस्ट्रीम हिंदी फिल्में देखते, तो डॉक्टर अस्थाना की क्लास में खड़े होकर एक सवाल ज़रूर पूछते,
ये देशभक्ति की फिल्म में ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाना ज़रूरी है क्या?

उनका ये सवाल गलत भी नहीं. ‘गदर’ से लेकर हालिया फिल्में देखेंगे, तो आप खुद समझ जाएंगे. ‘भुज’, ‘सत्यमेव जयते 2’ ये सारी फ़िल्में गैरज़रूरी ढंग से चीखने-चिल्लाने लगती हैं. ’83’ दर्शाती है कि आपको अपना हिरोइज़्म बाहर निकालने के लिए किसी दूसरे को विलन बनाने की ज़रूरत नहीं. बिना विलन का हीरो, ऐसा कॉन्सेप्ट जो हमारे मेनस्ट्रीम सिनेमा को अटपटा सा लगता है.
यहां मेरा मतलब ये नहीं कि ’83’ एक विलन फ्री फिल्म है, बस उनकी कोई शक्ल नहीं है. यहां विलन है वो अविश्वास, जो खिलाड़ियों पर उनका क्रिकेट बोर्ड दिखाता है. विलन है खिलाड़ियों के मन की वो शंका, जो उन्हें खुद को नीचा आंकने पर मजबूर करती है. विलन है वो तमाम विपरीत परिस्थितियां, जो नहीं चाहतीं कि ये टीम इंग्लैंड के मैदान पर कदम भी रखे.

फिल्म में ऐसे मोमेंट्स भरे हुए हैं, जहां क्रिकेटर्स छाती कूट-कूटकर देशभक्ति की दुहाई दे सकते थे, गुस्सा उगल सकते थे, लेकिन ऐसा हुआ नहीं. मीडिया इंडियन क्रिकेट टीम को लेकर अनर्गल बातें छापती है, टीम के खिलाड़ी उबल पड़ते हैं, चाहते हैं कि कपिल देव एक मुंह तोड़ जवाब टाइप स्टेटमेंट रिलीज़ करें. लेकिन कपिल ऐसा नहीं करते. शांति से समझाते हैं कि जवाब देना है, तो अपने गेम से देंगे. इस सीन को आराम से हम और वो वाले फॉर्मैट में फिट किया जा सकता था, लेकिन फिल्म ऐसा करती नहीं. 1983 का वर्ल्ड कप हमारी हिस्ट्री का ऐसा पन्ना है जिसपर गर्व करना बनता है. और ये फिल्म आपको सही मायने में करवाती भी है.
कुल मिलाकर अपनी देशभक्ति को बाजुओं पर पहनकर नहीं घूमती, उसकी नुमाइश नहीं करती, उसे अपने दिल में रखती है, जहां उसे होना चाहिए.
#2. ऑलमोस्ट परफेक्ट कास्टिंग
’83’ की कहानी तो है ही रोंगटे खड़े कर देने वाली, फिल्म की कास्ट भी उस एक्सपीरियेंस में प्लस वन करने का काम करती है. सबसे पहले बात टीम के कप्तान की. मुझे अक्सर रणवीर सिंह से शिकायत रहती थी कि उनका एक्टिंग स्टाइल काफी लाउड है. उनके एक्सप्रेशन्स अतिशयोक्तिपूर्ण लगते थे. लेकिन ’83’ में उन्होंने अपना पूरा एक्टिंग गेम बदल के धर दिया है. एक तो कपिल देव वाला एक्सेंट, जिस पर से रणवीर किसी भी पॉइंट पर अपनी ग्रिप ढीली नहीं होने देते. पूरी फिल्म में वो कंट्रोल में दिखाई देते हैं. मन में गुस्सा है, तो वो उनकी आंखों में नज़र आता है, उनके हाथ बिना बात हवा को नहीं चीरते.
ये नियर परफेक्शन वाला सिलसिला सिर्फ रणवीर तक ही नहीं रुकता. फिर वो मदनलाल बने हार्डी संधू हों या यशपाल शर्मा बने जतिन सरना, जिन्होंने यहां छतरी तो नहीं खोली, लेकिन ऐसा बल्ला चलाया है कि मज़ा आ जाएगा. सभी खिलाड़ियों में से किसी एक को भी दूसरे से बेस्ट बता पाना मुमकिन नहीं, ऐसी कास्टिंग हुई है यहां. फिर भी मेरा पर्सनल बायस मुझे एक एक्टर चुनने को मजबूर करता है. कृष्णम्माचारी श्रीकांत बने जीवा. श्रीकांत की किस्सागोई स्किल्स कैसी हैं, इसे एक नज़र में जानने के लिए आप ‘कपिल शर्मा शो’ वाला वो एपिसोड देख सकते हैं, जहां 1983 वर्ल्ड कप के असली हीरोज़ शो पर आए थे. जीवा को देखकर लगेगा कि वो बिना किसी एफर्ट के श्रीकांत की स्किन में कम्फर्टेबल हो गए.

फिल्म से एक सीन का ज़िक्र करते हैं. जहां इंडियन टीम एक हॉल में जमा है और श्रीकांत सेंटर स्टेज लेकर किस्सा सुना रहे हैं, जिसकी एक झलक आप ट्रेलर में भी देखते हैं. उस सीन का माहौल हंसी-खिलखिलाहट से शुरू होता है, लेकिन फिर इमोशनल हो जाता है. ये ट्रांज़िशन इतना स्मूद है कि आपको खटकता नहीं. इस एक ही सीन में आप दो विपरीत भाव महसूस कर लेते हैं.
#3. इमोशनल कनेक्ट
’83’ क्रिकेट की कहानी है. मैदान के बाहर उन क्रिकेटर्स की दुनिया कैसी है, इसकी कहानी भी बयां करती है. हरे मैदान पर जो कुछ घटता है और उसे कैसे फिल्माया है, वो मेरे लिए स्टैंड आउट करता है. कहने को मामूली बात है लेकिन मैच टेलीकास्ट होते वक्त स्क्रीन पर आने वाले फॉन्ट को देखिएगा, जिसे ओल्ड स्कूल रखा गया है. साथ ही कैमरा शॉट्स भी वैसे यूज़ किए हैं, जैसे उस दौरान मैच की रिकॉर्डिंग में अक्सर होते थे. ये बातें नैरेशन को ज्यादा अफेक्ट नहीं करती, लेकिन फिल्म को ऑथेंटिक फ़ील देने का काम करती हैं. एक और पॉइंट मेंशन करना ज़रूरी है. मैच के दौरान आपको असली फोटोग्राफ्स भी देखने को मिलते हैं, फिर चाहे वो दिलीप वेंगसरकर की चोट हो या कपिल देव के छक्के.

हमारे यहां स्पोर्ट्स पर गिनती की अच्छी फिल्में बनी हैं, रेफ्रेंस पॉइंट के लिए हमें बार-बार ‘लगान’ पर जाना पड़ता है. ऐसे में ’83’ इंडियन क्रिकेट की स्पिरिट कैप्चर करने में कामयाब कोशिश साबित होती है. ग्राउंड का एक्शन देख आप रोमांचित हो जाएंगे. ग्राउंड के बाहर जो घटता है, उसे देख आपका गला रुंध जाता है. फिल्म की तमाम अच्छी बातों के साथ-साथ यहां कुछ खामियां भी हैं. लेकिन फिर भी फिल्म देखी जानी चाहिए.
वीडियो: फिल्म नहीं ‘टाइम मशीन’ है कबीर खान की ’83’