ये 1985 की बात है. पाटीदारों ने आरक्षण के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था. जमकर हंगामा हो रहा था गुजरात में. शुरुआत हुई आरक्षण के खिलाफ. पाटीदार समाज ने शुरू किया था ये विरोध. आगे बढ़कर ये दंगे में बदल गया. हिंदू-मुस्लिम राड़ में. इसके कारण राज्य एकदम झोलाछाप हालत में आ गया. इस कदर बदहाल कि सरकार को उधार लेना पड़ा. किससे? मुख्यमंत्री के आपदा कोष से. आपदा कोष मुसीबत के वक्त के लिए होता है. जैसे बाढ़, भूकंप जैसा कुछ हो जाता है तो ऐसे में इसी आपदा कोष से सरकार लोगों की मदद करती है. तभी तो इसका नाम ही है आपदा कोष. मगर यहां सरकार को अपने जरूरी खर्चों के लिए चीफ मिनिस्टर रिलीफ फंड से 10 करोड़ रुपए लेने पड़े. कारण क्या गिनाया? कहा, पैसे की सख्त ज़रूरत है. इस समय गुजरात में कांग्रेस की सरकार थी. कमान संभाल रहे थे मुख्यमंत्री माधव सिंह सोलंकी.

1985-86 में जो पाटीदार समाज आरक्षण का विरोध करने सड़कों पर उतरा था, वो ही पाटीदार 2015 में अपने लिए आरक्षण की मांग करने रोड पर आ गए. ये अहमदाबाद में निकली एक पाटीदार रैली की तस्वीर है.
दंगों के कारण सरकार के हाथ खाली हो गए थे
ये जब हुआ, तब गुजरात में पांच महीने से दंगे-प्रदर्शन हो रहे थे. कामकाज बिल्कुल रुक गया था. टैक्स की वसूली हो नहीं पा रही थी. सरकार को खूब घाटा हो रहा था. अकेले सेल्स टैक्स से ही 75 करोड़ रुपए का नुकसान हो गया था. गुजरात राज्य परिहन निगम की 120 से ज्यादा बसें जला दी गई थीं. 2,000 बसों को तोड़-फोड़ दिया गया था. इतनी गंभीर हालत थी कि अकेले अहमदाबाद की कई रुटों पर सरकारी बस सेवा रोकनी पड़ी. इससे सरकार को रोजाना चार लाख रुपए तक का नुकसान हो रहा था. नगरपालिका के पास अपने कर्मचारियों काे वेतन देने तक के पैसे नहीं थे. ये तो बहुत छोटे-छोटे नुकसान गिना रहे हैं आपको. कारोबार वगैरह के घाटे का पहाड़ तो अलग ही था. कारोबार और उद्योग का घाटा 2,200 करोड़ तक पहुंच गया. फरवरी में शुरू हुआ था फसाद. जुलाई आते-आते हुड़दंगियों ने करीब 1,579 दुकानों और कारखानों को बर्बाद कर दिया. या तो आग लगा दी. या फिर तोड़-फोड़कर मिट्टी में मिला दिया.

तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी लोगों से शांति कायम करने अहमदाबाद पहुंचे. मगर इस अपील का कोई असर नहीं हुआ. गुजरात जलता रहा.
सरकार क्या, लोग भी बर्बाद हो गए थे
अहमदाबाद और ढोकला में तब 12 हजार के करीब मशीन के करघे थे. दंगों के बाद बस 20 फीसदी करघे ही काम कर रहे थे. राखीलाल, बापूनगर और सरसपुर जैसे इलाकों में तो हर दूसरे दिन कर्फ्यू लग जाता था. ऐसे में काम क्या खाक होता? ऐसा नहीं कि बस सरकार को नुकसान हुआ. जनता भी पस्त हो गई. कई लोग दिवालिया होने की कगार पर पहुंच गए थे. क्या मजदूर, क्या कारीगर और क्या दर्जी, सब नुकसान को रो रहे थे. कई इसलिए बेरोजगार हो गए कि जहां वो काम करते थे, वो जगह दंगे-फसाद के कारण बंद हो गई थी. कितने घर जले, कितनी दुकानें जलीं, कितने कारखाने और बस जैसे, इनका कोई ठीक-ठीक हिसाब नहीं. चार-पांच महीने के अंदर ही करीब 1,227 करोड़ रुपए की सरकारी संपत्ति स्वाहा हो गई.
डेढ़ साल तक जैसे लकवे सी हालत में था गुजरात
बैंकों का काम भी अटक गया था. एकदम स्थिर हो गया था. यहां तक कि चेक भी क्लियर नहीं हो पा रहे थे. फरवरी से लेकर जून के अंत तक करीब 1,800 करोड़ के चेक बैंकों के पास पड़े थे. आखिर में बैंकों ने चेक लेना ही बंद कर दिया. कहा, जब तक स्थितियां ठीक नहीं होतीं, तब तक ऐसे ही चलेगा. ये फसाद करीब डेढ़ साल तक चला. फरवरी 1985 में शुरू हुआ था और अक्टूबर 1986 तक चला.
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