एक कविता रोज़: अगर उसका कोई चेहरा है तो चांद की चर्चा बंद हुई समझो
आज एक कविता रोज़ में पढ़िए अपने दौर की कई कवयित्रियों की प्रशंसा करने वाले पहले आलोचक राजशेखर और उनकी कविता के बारे में. .
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2 फ़रवरी 2017 (अपडेटेड: 2 फ़रवरी 2017, 08:47 AM IST)
प्रिय पाठको, आज एक कविता रोज़ में संस्कृत साहित्य के आचार्य, आलोचक और कवि राजशेखर के बारे में पढ़िए. महाराष्ट्र के वासी, लेकिन घूमने-फिरते रहने वालों के वंश में पैदा हुए राजशेखर ने कवियों को कविता कैसे लिखी जाए और कवि का जीवन कैसे जिया जाए, यह बताने के मकसद से एक पूरा ग्रंथ ही लिख मारा. इस ग्रंथ को शास्त्रों में ‘काव्य-मीमांसा’ कहते हैं. पुराने टाइम में दो टाइप के ऋषि-मुनि होते थे. एक यायावरीय और दूसरे शालीय. शालीय ऋषि वे होते थे जो एक जगह पर टिक कर साधना करते थे और यायावरीय वे होते थे जो ऐसा नहीं करते थे यानी घूमते-फिरते जिनकी साधना जारी रहती थी. ये गृहस्थ या गृहस्थी का सुख भोग चुके संत होते थे. राजशेखर ऐसे ही एक संत थे. राजशेखर की पांच रचनाओं का ही जिक्र मिलता है. लेकिन उनकी जो रचना आज तक काबिले-जिक्र बनी हुई है, उसे ‘काव्य-मीमांसा’ कहते हैं. राजशेखर बहुत खुले विचारों के कवि थे और स्त्रियों की बौद्धिकता का भी बहुत सम्मान करते थे. जिस दौर में स्त्रियों की कविता को कोई महत्व नहीं दिया जाता था, उस दौर में राजशेखर ने कहा : ‘‘पुरुषों के समान ही स्त्रियां भी कवि हो सकती हैं. ज्ञान का संस्कार आत्मा से संबंध रखता है.’’ राजशेखर ने ‘काव्य-मीमांसा’ में अपने दौर की कई कवयित्रियों की प्रशंसा भी की. राजशेखर की पत्नी अवंतिसुंदरी भी खासी इंटेलेक्चुअल थीं. फेमिनिज्म तब तलक नहीं आया था, वर्ना वह जरूर फेमिनिस्ट होतीं. राजशेखर के खुले विचारों का पता इससे भी चलता है कि उन्होंने जाति से कुम्हार कवि द्रोण और चांडाल कवि दिवाकर की प्रशस्तियां भी लिखीं. अब थोड़ा-सा काव्य-मीमांसा के बारे में. इस ग्रंथ के बारे में कई कहानियां लोक में प्रचलित हैं. कहते हैं कि 'काव्यमीमांसा' जिसे हम पूरी किताब मानते हैं, दरअसल वह एक अधूरी किताब है. इस किताब में 'कविरहस्य' नामक खंड ही है और उसके भी केवल 18 चैप्टर हैं. 19वां चैप्टर ‘भुवनकोश' को मानते हैं, जो हाथ नहीं आया. खैर, 'कविरहस्य' बहुत पोएटिक एजुकेशन से भरा हुआ है. उस दौर की पोएटिक एजुकेशन को इस दौर की पोएटिक एजुकेशन से मिलाएं तब एक कवि की दिनचर्या कुछ यों होनी चाहिए : सुबह मुंह-अंधेरे उठकर सरस्वती-स्तोत्र का पाठ. इसके बाद नित्य-क्रियाएं और व्यायाम. इसके काव्य की विधाओं और उप विधाओं का अभ्यास. दुपहर के कुछ पूर्व स्नान. स्नानोपरांत प्रकृति के अनुकूल भोजन और मुखड़ापुस्तक (फेसबुक) पर काव्य-प्रक्षेपण व काव्य-चर्चा. फिर थोड़ा आराम. इस प्रकार तीन पहर तो यों बीत जाएंगे. चौथे पहर में काव्य-प्रक्षेपण पश्चात आई प्रतिक्रियाओं (कमेंट्स) का अध्ययन और भावावेश में रची गई कविताओं पर दृष्टि-विवेचन. शाम को दुबारा स्नान कर काली-स्तोत्र के पाठ के पश्चात पान खाकर मृगलोचना के साथ रमण तब तक जब तक श्रम-निवृत्ति न हो. तो ये थे राजशेखर और उनकी 'काव्य-मीमांसा'. अब कवियों के लिए काव्यशास्त्र रचने वाले राजशेखर के कुछ कविता-अंश :

अर्थात् :
प्रिया से अलग होकर मेरा शरीर बहुत जल रहा है. ओ चांद, तू अपनी रोशनी से इसे खेल में भी मत छू. क्योंकि तेरी कमलनाल जैसी ठंडी किरणें भी इसे छू कर झुलस-झुलस जाती हैं. 
अर्थात् :
यहां कवि अपनी प्रिया की तारीफ कुछ ज्यादा ही बढ़ा-चढ़ाकर कर रहा है. वह कह रहा है कि अगर उसका कोई चेहरा है तो चांद की चर्चा बंद हुई समझो. अगर उस पर चमक है तो सोना यानी गोल्ड फीका हुआ समझो. अगर उसकी आंखें हैं तो नीलकमल गए काम से. अगर उसकी आंखों पर भौंहें हैं तो धिक्कार है कामदेव के धनुष को. अगर वह हंसती है तो फिर अमृत का क्या काम. इसके आगे कवि यह कह कर चुप हो रहा है कि बनानेवाला भी क्या एक जैसी चीजें बनाने की गलतियां करता रहता है. 
अर्थात्
: यहां कवि कामदेव को संबोधित है. वह कह रहा है कि अब आप अपने हथियार फेंक दीजिए क्योंकि मैं तो अपने बिलव्ड से दूर हो कर जल कर राख हो गया हूं. मेरे बहुत भीतर तक धंस गए हैं तुम्हारे तीर. अब तुम और किसी को क्या जीतोगे. मुझे ही अकेले दुखी और पीड़ित बना रहने दो. कम से कम सारा संसार तो सुखी रहे... *** यह भी पढ़ें :