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'ऐ दिल है मुश्किल' में ऐश्वर्या की इस बात से आप हर्ट हो सकते हैं

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की इस नज़्म के इंकलाबी अर्थ थे.

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फोटो - thelallantop
https://www.youtube.com/watch?v=Z_PODraXg4E&feature=share ट्रेलर आया है फिल्म 'ऐ दिल है मुश्किल' का. देख लिया होगा आपने. इसे तीन बार देखने के बाद मेरा दिल यहां अटका है. ऐ यहां! ठीक 1 मिनट 10 सेकंड पर. https://youtu.be/Z_PODraXg4E?t=1m10s

मुझसे पहली सी मुहब्बत, मेरे महबूब न मांग!

यहां भी ऐश्वर्या राय का तिलिस्म बड़ी उम्र की ठेठ फिल्मी प्रेमिकाओं जैसा लग रहा है. वो जो एक 'सेंशुअस सुस्ती' के साथ संवाद बोलती हैं और अपेक्षित होता है कि उन्हें  इश्क के खेल में सयाना मान लिया जाए. तो रणबीर कपूर के आलिंगन में बैठी हुई वो इसी अदा से फ़ैज़ की ये लाइन पढ़ती है, 'मुझसे पहली सी मुहब्बत....' सामने अनुष्का शर्मा बैठी हैं, जो ट्रेलरानुसार, रणबीर की 'दोस्ती वाली प्रेमिका' हैं/रही हैं. भर्राई हुई आवाज़ में एक प्रश्नवाचक ध्वनि के साथ अनुष्का इसे दोहराती हैं, 'मुझसे पहली सी मुहब्बत?' रणबीर एक झटके में ये मंद-दुखी तरंग तोड़ते हैं और फौरन बहुत 'कैजुअली' कहते हैं, 'मेरे महबूब न मांग.' फिर धक्क से वो गाना बजता है, जिसकी चर्चा चहुंओर है. 'रांझण दे यार बुलेया. सुन ले पुकार बुलेया.' नए ज़माने के लड़के-लड़कियां इस तरह समझें कि आपका 'एक्स' आपके सामने अपनी मौजूदा गर्लफ्रेंड संग बैठा हो और आपसे कहे, 'डोंट एक्सपेक्ट एनीथिंग फ्रॉम मी नाऊ. इट्स ओवर.' इसके बाद जैसी जलन कलेजे में हो सकती है, वैसी अनुष्का को होती है और इसे बयान करने के लिए अमिताभ भट्टाचार्य के बोल आते हैं.

इंकलाबी अर्थ थे और अब?

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की इस नज़्म के इंकलाबी अर्थ थे. पर दिलचस्प है कि करण जौहर ने इसे 'प्रेम त्रिकोण की जलन' से जोड़ लिया है. फिल्म आने के बाद और पृष्ठ खुलेंगे. पर ट्रेलर से जो खिड़की खुली है, उससे कुछ बातें घुमड़ आई हैं. पहले ये नज़्म पूरी पढ़ लें और ये समझ लें कि ये किस अर्थ में लिखी गई थी.
मुझसे पहली-सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग मैंने समझा था कि तू है तो दरख्शां है हयात तेरा ग़म है तो ग़मे-दहर का झगड़ा क्या है तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात तेरी आंखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है तू जो मिल जाए तो तकदीर नगूं हो जाये यूं न था, मैंने फ़क़त चाहा था यूं हो जाये और भी दुख हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा अनगिनत सदियों के तारीक बहीमाना तिलिस्म रेशमो-अतलसो-किमख़्वाब में बुनवाए हुए जा-ब-जा बिकते हुए कूचा-ओ-बाज़ार में जिस्म ख़ाक में लिथड़े हुए, ख़ून में नहलाये हुए जिस्म निकले हुए अमराज़ के तन्नूरों से पीप बहती हुई गलते हुए नासूरों से लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीजे और भी दुख हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा मुझसे पहली-सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग

सरल भाषा में मतलब:

मुझसे पहली-सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग मैंने समझा था कि तू है तो जिंदग़ी है रौशन तेरा ग़म है तो इस दुनिया के दुख-संताप का झगड़ा उसके आगे क्या है तेरी सूरत के चलते ही इस दुनिया में बहार देर तक बनी रहती है तेरी आंखों के सिवा दुनिया में रखा क्या है तू जो मिल जाए तो तक़दीर मेरे आगे झुक जाए मैंने नहीं चाहा था कि इस तरह हो जाए मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग और भी दुख हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा मिलन की राहत से बड़े सुख और भी हैं अनगिनत सदियों के अंधेरे काले तिलिस्म रेशम, साटन और चमकदार ज़री में बुनवाए हुए बाज़ार की हर गली में जगह-जगह बिकते जिस्म मिट्टी में लिथड़े हुए, खून में नहलाए हुए जिस्म निकले हुए बीमारों की भट्टी से और उनके नासूरों से बहती हुई मवाद लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीजे और भी दुख हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा राहतें और भी हैं मिलन की राहत के सिवा मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग
बिलाशक फैज़ की इस नज़्म का मूल कुछ और है. इस नज़्म का नायक शुरू में इश्क के लिए आश्वस्ति जगाता-सा लगता है. अतिरेक में वह अपनी नायिका से कहता है कि तुझसे जिंदगी रौशन है, मैं तुझे पाना चाहता हूं, तेरी आंखों के सिवा दुनिया में रखा क्या है, वगैरह वगैरह. लेकिन ये बातें भूमिका के बतौर आती हैं. असल बात वहां से शुरू है, जब वो कहता है, 'और भी दुख हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा.'
नायक दरअसल प्रेम से विमुख हो रहा है क्योंकि वो समाज में फैली बुराइयों को बुहारने जाना चाहता है. एक इंकलाबी का अपनी प्रेमिका से संभवत: अलविदा-संवाद! यहां ये बारीक ख़्याल रखा जाए कि ये खालिस विमुखता है, प्रेम से अनिच्छा नहीं. विमुखता के साथ नत्थी सभी अर्थ यहां लागू नहीं होते. ये सिर्फ प्राथमिकता का चयन है. इसीलिए दुनिया के तमाम बदरंग चित्र उकेरने के बाद वो कहता है, 'अब भी दिलकश है तेरा हुस्न, मगर क्या कीजे.' 'मगर क्या कीजे' में ही उसकी बेबसी, उसका फैसला, उशका अंतर्मन छिपा है. इस नज़्म की असल ताकत इसी एक लाइन में दिखती है.

'मुझसे पहली सी मुहब्बत...' फ़ैज़ के लिए प्रेम में 'रिजेक्शन' का एक्सप्रेशन नहीं था, जैसा करण जौहर ने इस्तेमाल किया है. फैज़ का एक्सप्रेशन समाज के लिए 'सैक्रिफाइस' का है. प्रेम में बने रहते हुए, उससे दूर जाने का है.

ये इतनी बारीक बातें नहीं हैं, पर कोई फिल्मकार इनमें नहीं घुसना चाहता तो आप क्या कर लेंगे.

अब ये सवाल कि

किसी कविता के अंश का इस्तेमाल क्या उसकी समूची भावना से निरपेक्ष होकर किया जा सकता है? किया जाए तो क्या कवि/शायर या उसके प्रशंसकों को आहत होना चाहिए? बिलाशक बहुत सारे लोग इसे ठीक नहीं समझेंगे. लेकिन इससे आहत महसूस करने की जरूरत नहीं है. फैज़ बहुत काबिल, बहुत सम्मानीय शायर हैं. जब तक कोई उनकी लिखी बात को एकदम उलट अर्थों में इस्तेमाल न करे, भावुकता में बुरा मानने की जरूरत नहीं है. शायरों को इतना स्पेस तो छोड़ना ही होगा. मैंने तो बड़ी शरारत कर ली थी. फ़ैज़ की नज़्म 'दश्त-ए-तनहाई' का एक हिस्सा है, 'इस क़दर प्यार से ऐ जाने जहां रक्खा है/दिल के रुखसार पर इस वक़्त तेरी याद ने हाथ.' इसे मैंने 'दिल के रुख़सार पर इस वक्त एक अक्टूबर ने हाथ' करके फेसबुक पर लिख दिया था. ऐसे मामलों में नीयत जरूरी चीज़ हो जाती है. कौन बेग़ैरत फैज़ का अपमान कर सकता है, बशर्ते वो बाज़ार न हो. वैसे बाज़ार भी सलीक़े से उन्हें इस्तेमाल करता रहे तो उस पर भी क्या 'हाय-हाय' करना. 'आयरनी' को जरूर याद कर सकते हैं.

चलते-चलते नूरजहां:

https://www.youtube.com/watch?v=iaVI4U1Trtw

और ज़ोहरा आपा भी:

https://www.youtube.com/watch?v=B6SSbjcGWOg
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