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फिल्म रिव्यू: शाबाश मिथु

तापसी ने 15 साल वाली मिताली के जूतों में पांव रखे और आगे बढ़ीं. इस उम्र का डर, झिझक, सभी को उनके चेहरे और हावभाव में जगह मिलती है. वो भी बिना ऑब्वियस हुए.

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'शाबाश मिथु' टिपिकल बायोपिक वाले एलीमेंट्स से दूर जाना चाहती है. फिर भी उन्हीं में फंसती दिखती है.

एक नई बायोपिक रिलीज़ हुई है. नाम है ‘शाबाश मिथु’. ये भारतीय महिला क्रिकेट टीम की पूर्व कप्तान मिताली राज के जीवन पर आधारित फिल्म है. तापसी पन्नू ने स्क्रीन पर उनका किरदार निभाया है. हमें पता है कि ये सुनकर आपके दिमाग में क्या चल रहा है. कि यार हर दूसरे महीने नई बायोपिक आ जाती है. ऐसे में यहां नया क्या है. बात ऐसी है कि आप कोई बायोपिक देखें. फिल्म खत्म हुई. उसके बाद आपके अंदर उस इंसान के बारे में जानने की इच्छा जागने लगती है. अगर कोई बायोपिक ये कर पा रही है तो मुझे कोई शिकायत नहीं. ‘शाबाश मिथु’ ऐसा इम्पैक्ट पैदा कर पाती है या नहीं, आज की बातचीत में यही जानेंगे. 

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‘शाबाश मिथु’ मिताली राज के प्रोफेशनल क्रिकेटर बनने की जर्नी कवर करती है. उनका बचपन कैसा था. क्रिकेट से पहला परिचय कैसे हुआ. किन परिस्थितियों ने मेक और ब्रेक किया. और मिताली ने उन सबसे पार कैसे पाया. फिल्म में इन बातों को तो जगह मिलती है. लेकिन ये सिर्फ इन्हीं बिंदुओं के इर्द-गिर्द नहीं घूमती. जब से क्रिकेट सुनना, देखना और समझना शुरू किया, तब से एक लाइन लगातार सुनने को मिलती,

Cricket is a Gentleman’s Game. 

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इस लाइन से हमने सीखा कि क्रिकेट तहज़ीब से खेला जाने वाला स्पोर्ट है. चीटिंग आदि से दूर रहना चाहिए. हालांकि, उस वक्त इस लाइन में मौजूद Man हमें कभी अज़ीब नहीं लगा. ये नैचुरल हो गया कि क्रिकेट तो है ही मर्दों का खेल. बस यही फिल्म में मिताली का सबसे बड़ा चैलेंज था. उस सोसाइटी में महिला क्रिकेट की जगह बनाना, जहां मेल क्रिकेट खिलाड़ियों की तुलना फौजियों से होती है. कि ये लोग तो देश के लिए खेल रहे हैं. वहीं, महिला क्रिकेट का किसी को आइडिया तक नहीं. उनकी कोई पहचान नहीं. इसी पहचान पर एक कमाल का सीन भी है, जहां मेल क्रिकेट बोर्ड का अध्यक्ष अपने कर्मचारी को बुलाता है. उससे पूछता है कि कुछ महिला क्रिकेटर्स के नाम बताओ. वो एक भी नाम नहीं बता पाता. सामने मौजूद महिला खिलाड़ियों को शर्मिंदगी महसूस होती है. फिर भी ये सीन जिस तरह खत्म होता है, उसे आप फिल्म के मेमोरेबल मोमेंट्स में गिन सकते हैं. 

shabaash mithu movie review
श्रीजीत मुखर्जी ने मिताली राज की बायोपिक को डायरेक्ट किया है.

फिल्म देखते वक्त आपको एक शिकायत हो सकती है. मिताली ने अपना क्रिकेट शुरू किया. वो एक प्रोफेशनल क्रिकेटर बनीं. फील्ड पर उनके चौके, छक्के, कवर ड्राइव देखने को मिलते हैं. बस उनके फेलियर्स को जगह नहीं मिलती. मतलब वो उभर कर नहीं आते. बाधाओं की कमी लगती है. कुछ ऐसा ही ‘गली बॉय’ में भी था. जहां मुराद को रैप करने में ज़्यादा दिक्कत नहीं आई थी. उसकी समस्याएं स्टेज से दूर थीं. ऐसा ही फिल्म में मिताली के साथ है. वो एक काबिल प्लेयर हैं. प्रिविलेज्ड बैकग्राउंड से आती हैं. क्रिकेट खेलने में पेरेंट्स रोक-टोक नहीं करते. फिल्म उनके इसी प्रिविलेज को उनकी बाधा बनाकर दिखाती है. 

कैसे उनके लिए चीज़ें दूसरों के मुकाबले आसान रहीं. उनकी तुलना में बाकी प्लेयर्स के लिए हर एक दिन किसी स्ट्रगल से कम नहीं था. वहीं, मिताली को सिर्फ फील्ड पर ही मेहनत करनी होती. इन खिलाड़ियों को मिताली का प्रिविलेज अखरता. जिस वजह से आपसी तनाव भी होता. फिर भी फिल्म इन खिलाड़ियों को किसी विलेन की तरह नहीं दिखाती. उनके मानवीय पक्ष को बरकरार रखती है. मेरे लिए ये पॉइंट्स फिल्म के हाईलाइट्स थे. फिल्म का फर्स्ट हाफ कहानी को बांधकर रखता है. आपको एंगेज़ कर के रखता है. 

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फिल्म के एक सीन में तापसी पन्नू और विजय राज.

फिर आता है सेकंड हाफ. जहां स्क्रीनप्ले में दिक्कतें शुरू हो जाती है. उसके एलीमेंट्स कंसिस्टेंट नहीं रह पाते. हर कहानी को बताने की अपनी पेस होती है. मेकर्स उसे समय लेकर दिखाना चाहते हैं या जल्दी में लपेट देते हैं. ‘शाबाश मिथु’ का सेकंड हाफ दर्शकों का पेशेंस टेस्ट करता है. आपको देखते हुए महसूस होता है कि इसे खींचा जा रहा है. इस वजह से एक वक्त पर आकर आप बस क्लाइमैक्स का इंतज़ार करने लगते हैं.  

‘शाबाश मिथु’ अपने मोमेंट्स की वजह से चमकती है. मगर ये चीज़ पूरी फिल्म में आपको नहीं दिखती. तापसी पन्नू पिछले कुछ समय से लगातार फिज़िकली और ईमोशनली डिमांडिंग रोल करती आ रही हैं. ‘शाबाश मिथु’ में उनकी मेहनत दिखती है. उनका क्रिकेट पिच पर गार्ड लेना. स्टांस, ग्राउंड पर मारे शॉट्स. सब पर काम हुआ है. तापसी ने 15 साल वाली मिताली के जूतों में पांव रखे और आगे बढ़ीं. इस उम्र का डर, झिझक, सभी को उनके चेहरे और हावभाव में जगह मिलती है. वो भी बिना ऑब्वियस हुए. एक छोटी लड़की जो नए माहौल से, बदलाव से, सहमी हुई है. फिर बनती है एक कॉन्फिडेंट खिलाड़ी. जिसके कंधों पर है पूरी टीम की ज़िम्मेदारी. तापसी अपने किरदार के इन दोनों पहलूओं को आराम से कैरी कर पाती हैं. 

कास्ट के लिहाज़ से तापसी यहां सबसे बड़ा नाम थीं. लेकिन फिल्म देखने के बाद आपको एक और चेहरा याद रह जाएगा. वो था मिताली के बचपन वाला किरदार निभाने वाली बच्ची. कैसे वो अपने डायलॉग में पॉज़ देने की कोशिश करती है. कैसे उसका क्रिकेट गार्ड लेने का तरीका बहुत हद तक मिताली जैसा है. वही अपने घुटनों को थोड़ा मोड़कर खड़े होना. और तमाम छोटे-बड़े नुआंसेज़.

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जब महिला खिलाड़ियों को मेल प्लेयर्स की जर्सी दे दी जाती है. फिल्म का सबसे हाईलाइटिंग पॉइंट.  

‘शाबाश मिथु’ एक बेहतरीन फिल्म नहीं. लेकिन एक बात के लिए इसकी तारीफ होनी चाहिए कि ये पहले आई बायोपिक्स से दूर खड़े होने की कोशिश करती है. उनके हर एलीमेंट को बेझिझक कॉपी पेस्ट नहीं करती. लाउड नहीं बनती. बिना बात अपनी शान में छाती नहीं पीटना चाहती. अगर सेकंड हाफ पर थोड़ी और मेहनत की जाती, उसे दुरुस्त किया जाता तो ये एक यादगार फिल्म बन सकती थी.  

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